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________________ ४९४ तीर्थंकर चरित्र किकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर देत वन में पहुँचा । यह वन बहुत बड़ा और भयानक था। इसमें सभी प्रकार के क्रूर और हिंस्र-पशु रहते थे। उत्तम प्रकार के पुष्पों और फलों से भी यह वन समृद्ध था। इसमें तापसों के आश्रम भी थे, जिनमें रह कर वे विविध प्रकार की तपस्या करते रहते थे। इसी वन के एक भाग में, विशाल वृक्ष के नीचे भूमि स्वच्छ कर के पाण्डव-परिवार रह रहा था। भीमसेन वन में से सभी के लिए खाद्य-सामग्री लाता । नकुल वल्कल के वस्त्र बना कर सब को देता, सहदेव पत्रों के पात्र बनाता और अर्जुन धनुष-बाण ले कर सभी की रक्षा करता तथा द्रौपदी सब के लिए भोजन बनाने आदि गृहकार्य करती और सभी मिल कर युधिष्ठिर और कुन्तीदेवी की सेवा शुश्रूषा करते । प्रियंवद खोज करता हुआ उनके पास पहुँचा । उसे देख कर सभी प्रसन्न हुए। युधिष्ठिर आदि ने अपने प्रियजनों के समाचार पूछे । कुशल-क्षेम पृच्छा के बाद प्रियंवद ने कहा; ___ "महाराज ! आप पृच्छन्न नहीं रह सके। आपकी ख्याति हस्तिनापुर में सर्वत्र व्याप्त हो गई। इससे आपके पिताश्री और काका विदुरजी बहुत चिन्तित हैं । उन्होंने मुझे आपको सावधान रहने का सन्देश दे कर भेजा है । शत्रु आपका जीवित रहना सहन नहीं कर सकेगा और नई विपत्तियाँ खड़ी कर के आपको संकट में डालने का भीषण प्रपंच करेगा । आपको सदैव सावधान रहना चाहिए।' -"प्रिय प्रियंवद ! तेरा कहना और पूज्य पिताश्री और काकाजी की सूचना यथार्थ है । हम स्वयं गुप्त रहने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु परिस्थितियाँ ही ऐसी बन जाती है कि जो हमें उजागर कर देती है। हम एकचका में भी ब्राह्मण बन कर गुप्त रहे थे। परन्तु वहां की दयनीय स्थिति ने हमें गुप्त नहीं रहने दिया। हमें वहाँ कोई कष्ट नहीं था, परन्तु गुप्त रहने के लिए ही हम राज्य से प्राप्त सुविधा छोड़ कर यहाँ इस वन में आये । अपनी ओर से हम सावधान ही है, फिर आगे भवितव्यता बलवान है । पूज्य पुरुषों का आशीर्वाद हमारा कवच बन कर रक्षा करेगा।" --"महाराज ! अब मुझे आज्ञा दीजिये। वहाँ शीघ्र पहुँच कर उनकी चिन्ता दूर करनी है। फिर मेरा अधिक समय तक अनुपस्थित रहना भी सन्देहजनक बन जाता है।" --"हाँ भाई ! तुम जाओ और सकुशल शीघ्र पहुंच कर पूज्यजनों की चिन्ता मिटाओ। पिताश्री, माताजी, काकाजी, पितामह और श्री द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि को हमारा सविनय चरण-स्पर्श निवेदन करना और कहना कि आपकी असीम कृपा, हमारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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