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तीर्थङ्कर चरित्र
था । पाण्डव जैसे महापुरुष उसके अतिथि रहे थे। राजा प्रजा ने पाण्डवों का जयजयकार किया और समारोह पूर्वक नगर में ला कर राज्य प्रासाद में निवास कराया । वहाँ के सुखपूर्वक रहने लगे ।
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दुर्योधन की चिन्ता और शकुनि का आश्वासन
एकचक्रा नगरी में बक- राक्षस वध और पाण्डवों का राज्य-व्यापी महा सम्मान की बात जब दुर्योधन तक पहुँची, तो वह चिन्तामग्न हो गया । उसका लाक्षागृह का षड्यन्त्र भी व्यर्थ गया । अब तक वह पाण्डवों को मृत मान कर ही संतुष्ट था। परन्तु आज प्राप्त हुए विश्वस्त समाचारों ने उसे भयभीत बना कर उद्विग्न कर दिया । उसे भविष्य में राज्य भ्रष्ट होने की आशंका सता रही थी। वह कोई ऐसा उपाय करना चाहता था कि जिससे उसके शत्रु पाण्डव- नष्ट हो जायें । परन्तु उसे ऐसा कोई उपाय सूझ नहीं रहा था। इतने में उसका मामा और राज्य का मन्त्री शकुनि उसके पास आया और दुर्योधन नरेश को चिन्तित देख कर पूछा
" क्या कारण है कि आज महाराजाधिराज चिन्तित दिखाई दे रहे हैं ? "
कु
- " मामा ! हम बाजी हार गए। हमारा पाव व्यर्थ गया । हमारे शत्रु बच कर निकल गए।"
-" क्या कह रहे हैं- राज राजेश्वर ! कहीं कोई स्वप्न तो नहीं देखा ?"
"नहीं मामा ! हमारे शत्रु निराबाध निकल गए और किर्मिर, हिडिम्ब और an जैसे महाबली योद्धाओं को मार कर वे एकचक्रा नगरी में, परम आदरणीय बन गए । वहां के राजा ने उनका महान् आदर किया और राज्य के महामान्य बना कर रखा है । राज्य की प्रजा उन्हें अपना परम तारक मानती है । ये विश्वस्त समाचार वहाँ से आये एक प्रवासी से मिले हैं। लगता है कि मेरा राज्य अब थोड़े ही दिनों का है । यह महाचिन्ता मुझे खाये जा रही है ।"
--" राजेन्द्र ! वे बच कर निकल गए, यह उनके आयु बल का प्रताप है । किन्तु इससे मह नहीं समझना चाहिए कि वे इतनी शक्ति प्राप्त कर लेंगे कि जिससे एक सबल साम्राज्य का सामना कर के विजय प्राप्त कर सकें । वे बलवान् हैं, तो क्या हुआ ? हैं तो पाँच भिखारी ही । वे हमारे महान् योद्धाओं और महासेना जूझने का साहस कैसे कर
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