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राक्षस से नगर की रक्षा
४८६ ककककराय-कायसन्माएकछवककककृयसककककककककरायान्यन्नमयन्यत्यययययययान्तन्यरूययाका
थी और पुत्र-पुत्री भी उसी प्रकार अपने को भक्ष्य बना कर कुटुम्ब की रक्षा करना चाहते रे और सभी आपस में रो रहे थे । बिलाप सुन कर कुन्तीदेवी उनके पास आई और रोते हुए परिवार को ढाढ़स बंधा कर कारण पूछा । ब्राह्मणी ने विपत्ति का कारण बताया। कुन्तीदेवी ने उन्हें धीरज बंधाते हुए कहा;
“आप निश्चिन्त रहें। आपमें से किसी को भी राक्षस के पास जाने की आवश्यकता नहीं है । मेरा पुत्र बाएमा । अब आप शोक छोड़ कर प्रसन्न हो जाइए।"
देवशी बोला- नहीं, नहीं। ऐसा कदापि नहीं हो सकता । मेरी विपत्ति, मेरे आदरणीय अतिथियों पर नहीं डाल सकता। में स्वयं जाऊँगा । मेरा भार में स्वयं उठाऊँगा ।"
“भाई ! आप क्यों हठ कर रहे हैं ? यह निश्चित समझिये कि आपमें से कोई भी नहीं जा सकेगा । जाएगा मेरा पुत्र बोर वह इस राक्षसी संकट को सदैव के लिए समाप्त कर देगा"-कुन्तीदेवी ने दृढ़ता के साथ आये कहा-"आप सब यहाँ से उठो और सदा की भांति अपने-अपने काम में लयो।"
ब्राह्मणी ने कहा-“माता ! मैं अपने परिवार को बचाने के लिए आपके पुत्र को मृत्यु के मुख में नहीं भेज सकती। आप तो महान् परोपकारिणी माता हैं । आपके पुत्र भी महान् पराक्रमी हैं। परन्तु राक्षस यों नहीं मर सकता । एक ज्ञानी महात्मा ने कहा था कि राक्षस का संकट, पाण्डव मिटावेंगे, जो राज्य खो कर इस नगर में आवेंगे । सारा नगर पाण्डवों के बागमन की प्रतीक्षा कर रहा है। आप हठ छोड़ दें और मुझे ही जाने दें।"
___ यह बात हो ही रही थी कि इतने में भीमसेन वहाँ आये । उन्होंने सारी बात मुन कर कहा;--
" मैने प्रतिज्ञा कर ली है। मैं स्वयं राक्षस का सामना करने जाऊँगा । यदि में नहीं जाऊँ, तो मेरी मातेश्वरी का वचन निरर्थक हो जाता है । माता की इच्छा आपके परिवार की रक्षा करने की है । यदि में अपनी माता की इच्छा पूरी नहीं करूं, तो मेरा जीवन ही व्यर्थ हो जाय । इसलिए आप अब इस विषय को छोड़ दें। मैं राक्षस के पास जाता हूँ।"
देवशर्मा ने भीमसेन को रोकते हुए कहा-“ आप हठ मत करिये । मैं अपनी विपत्ति का भोग आपको कदापि नहीं होने दूंगा।" इतना कह कर देवशर्मा उठा बोर अपने इष्टदेव की पूजा-प्रार्थना करने लगा। देवशर्मा के जाने के बाद, भीम उठा बोर माता आदि को प्रणाम कर चल निकला। वह राक्षस-भवन के निकट हा कर वशिला
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