SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राक्षस से नगर की रक्षा पाण्डव-परिवार ब्राह्मण के वेश में नगर में फिर रहा था कि उन्हें देवशर्मा ब्राह्मण मिला । देवशर्मा अच्छे स्वभाव का व्यक्ति था । अतिथि सत्कार उसका विशेष गुण था । उसकी पत्नी भी उसके अनुरूप थी । उसके एक पुत्र और एक पुत्री थी । देवशर्मा, पाण्डवपरिवार को प्रवासी विप्र-परिवार जान कर आग्रहपूर्वक अपने घर ले आया और घर के एक भाग में ठहरा दिया । देवशर्मा की पत्नी भी अपने पति के साथ उनकी सेवा में लग गई । कुन्ती और द्रौपदी ने ब्राह्मणी और उसके पुत्र-पुत्री को अपनी मिलनसारिता से मोह लिया । सारा पाण्डव-परिवार एक प्रकार से देवशर्मा का परिवार ही बन गया । किसी के मन में कोई भेद नहीं, कोई द्विधा नहीं । समय शान्तिपूर्वक व्यतीत होने लगा । उस नगरी पर एक राक्षस कुपित था । वह पत्थर वर्षा से नगर को नष्ट करने लगा । तब राजा और प्रजा ने मिल कर राक्षस से दया की याचना की। राक्षस ने अपनी ओर से शर्त रखी कि "यदि भैरव-वन में मेरे लिए एक भव्य प्रासाद बनाया जाय और प्रतिदिन उत्तम खाद्य एवं पेय पदार्थों के साथ एक मनुष्य मेरे भक्षण के लिए भेजा जाय, तो मेरा उपद्रव रुक सकता है । अन्यथा इस नगर के बराबर महाशिला गिरा कर सभी नागरिकों का एक साथ संहार कर दूंगा ।" राजा ने राक्षस की माँग स्वीकार कर ली और राज्य की ओर से भैरव-वन में एक भव्य प्रासाद बनाया गया। फिर प्रजा में से क्रमानुसार प्रतिदिन एक घर से एक मनुष्य और खाद्य एवं पेय पदार्थ उस भवन में पहुँचाया जाने लगा। इस प्रकार राक्षस को संतुष्ट कर के महाविनाश से बचा गया। फिर भी राक्षस को प्रतिदिन एक जीवितमनुष्य खाने के लिए देना सब को दुःखदायक बन रहा था। एकबार नगर के बाहर उद्यान में एक केवलज्ञानी भगवंत पधारे । नागरिकों ने भगवान् से पूछा - " इस संकट से उबरने का शुभ दिन कब आएगा -- प्रभो !' भगवान् ने कहा - " पाण्डव राज्यच्युत हो कर घूमते हुए इस नगर में आएंगे, तब राक्षसी - उपद्रव मिटेगा ।" पुरजन पाण्डवों के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे । एक दिन देवशर्मा का परिवार शोकाकूल हो कर विलाप करने लगा । उसे राक्षस का भक्ष बनने के लिए जाने की राजाज्ञा मिल चुकी थी । यह मृत्यु-सन्देश ही उनके महाशोक का कारण था। चारों जीव परस्पर लिपट कर रो रहे थे । देवशर्मा स्वयं राक्षस का भक्ष बनने के लिए जाना चाहता था, उसकी पत्नी खुद जाने को तत्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy