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________________ ४८० तीर्थङ्कर चरित्र ৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুকৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুকৰুৰুৰুৰুৰু "धर्मावतार ! मेरे स्वामी महाराजाधिराज दुर्योधनजी को आपके पधारने के बाद अत्यन्त खेद हुआ । वे आपको महान् उदार, गम्भीर, आदर्श, नीतिवान्, धर्मप्राण और पुण्यात्मा मानते हुए अपने-आपको अत्यन्त तुच्छ, हीन, क्षुद्र एवं पापात्मा मानते हैं । ग्नानि से उनकी आत्मा, संताप की अग्नि में जलती रहती है। उन्होंने आपकी सेवा में निवेदन कराया है कि आप सत्वर हस्तिनापुर पधार कर अपना राज्य सम्भालें और मझे इस भार से मुक्त कर दें। यह आपका मुझ पर उपकार होगा । यदि आप, अपनी प्रतिज्ञा के कारण उस अवधि तक राज्यभार ग्रहण नहीं कर सकें, तो यहाँ पधार कर सुखपूर्वक रहें, जिससे महाराज आपकी सेवा कर के अपने पाप का प्रायश्चित्त कर सकें । प्रजा भी आपके दर्शन कर संतुष्ट रहेगी और वृद्ध भीष्मपितामह, महाराज पाण्डुजी आदि को भी शान्ति मिलेगी। अब आप हस्तिनापुर पवारने की स्वीकृति प्रदान कर कृतार्थ करें।" पुरोचन पुरोहित द्वारा दुर्योधन का उपरोक्त अनपेक्षित सन्देश पा कर सभी पाण्डव प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा-"कदाचित् दुर्योधन में सुमति उत्पन्न हुई हो ? अथवा बाप्तजनों तथा प्रजा की ओर से होती हुई आलोचना से उसे अपने कुकृत्य का भान हुआ हो और वह अपनी भूल सुधारना चाहता हो ? कुछ भी हो, वह आग्रहपूर्वक हमें आमन्त्रित कर रहा है, तो हमें चलना चाहिए । हम वहां रह कर भी अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह कर सकेंगे और अवधि पूरी होने तक पृथक् आवास में रहेंगे" । सभी ने हर्षपूर्वक युधिष्ठिरजी की बात स्वीकार की। युधिष्ठिरजी ने पुरोहित मे कहा; "भाई दुर्योधन का स्नेह-सन्देश पा हम सब प्रसन्न हैं । हम उसके आमन्त्रण को स्वीकार करते हैं और यहाँ से हस्तिनापुर की बोर ही आवेंगे । परन्तु हम अपनी स्वीकृत अवधि के पूर्वकाल तक पृषक् आवास में ही रहेंगे।" दूत प्रणाम कर लौट गया और प्रवासी पाण्डव भी हस्तिनापुर चलने की तैयारी कर के चल निकले । जब वे हस्तिनापुर के निकट पहुंचे, तो दुर्योधन उनको बड़ी भक्ति एवं आदर के साथ बधा कर लाया और उनके लिये ही विशेषता से बनाये हए भव्य भवन में ठहराया । वह भवन भव्यता विशालता और सभी प्रकार की उत्तम सामग्री से युक्त था । सेवक-सेविकाएं भी सेवा में उपस्थित रहते थे और दुर्योधन स्वयं आ-आ कर, प्रेमपूर्वक व्यवहार से सभी को संतुष्ट करता रहता था। इससे भीष्मपितामह आदि भी संतुष्ट थे। श्रीकृष्ण भी इस परिवर्तन से प्रसन्न थे। जब वे द्वारिका लोटने लगे, तो युधिष्ठिरजी की आज्ञा से सुमद्रा भी माता से मिलने के लिए, उनके साथ द्वारिका चली मई । कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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