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________________ दुर्योधन का दुष्कर्म • ၇၈၈ ၉၀၀ ၀ ၀၈၀၇၈၇၈ ၁၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀ ၆၆၉ ၀၇၀ ? पाण्डु नरेश ने गद्गद् कण्ठ से पुत्रों को छाती से लगा कर कहा--"अब मेरा जीवन निःसार हो रहा है । मैं तुम सब के मोह में पड़ कर धर्म-साधना भी नहीं कर सका और अब यह विपत्ति आ पड़ी।' उन्होंने अपनी उत्तम रत्नों से निमित्त चमत्कारी मुद्रिका युधिष्ठिर के हाथों में पहिनाते हुए कहा- "इसे सम्भाल कर रखना । यह तुम्हारी विपत्तियों का निवारण करने वाली होगी झऔर अपनी स्नेहमयी माता को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देना....... कहते हुए पाण्डु राजा का हृदय अवरुद्ध हो गया । वे भाव-विभोर हो कर कुन्ती की ओर बढ़े थे कि ज्येष्ठजनों की उपस्थिति का विचार कर रुक गए। कुन्ती की दशा भी वैसी ही थी। इस स्थिति को सम्भालते हुए भीष्मपितामह ने सब को चलने का आदेश दिया । माद्री ने अन्त में अपने पुत्रों से कहा "माता कुन्तीदेवी और भ्रातृवरों की सेवा करने में पीछे मत रहना।" कुन्ती, द्रौपदी और पांचों पाण्डव वन की ओर बढ़े और शेष सभी कुटुम्बीजन हस्तिनापुर की ओर चले । दुर्योधन का दुष्कर्म यद्यपि पाण्डव राज्य-च्युत हो वनवास चले गये और दुर्योधन की राज्य-सत्ता जम चुकी थी, परन्तु दुर्योधन निश्चिन्त नहीं हो सका । उसके मन में यह भय बना रहा कि--'तेरह वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद मेरी राज्य-सत्ता बनी रहनी असम्भव हो सकती है। पांचों भाई अजेय योद्धा हैं, श्रीकृष्ण की सहानुभूति भी उनकी ओर है, भीष्मपितामह और अन्य आप्तजन भी उन्हीं का पक्ष करते हैं और दूसरों का क्या, मेरे पिता भी मुझ-से रुष्ट हैं और प्रजा में भी मेरी निन्दा हो रही है । वनवास-काल व्यतीत होते ही वे आ धमकेंगे और मुझे अपने वचन के अनुसार राज्य-सत्ता छोड़ने का कहेंगे। यदि मैं वचनभ्रष्ट बनूंगा, तो युद्ध अनिवार्य बन जायगा और परिणाम ?........नहीं, जब तक पाण्डव जीवित रहेंगे तब तक मैं निश्चिन्त नहीं हो सकूँगा । मुझे इस बाधा को हटा ही देनी चाहिए। दुर्योधन ने खूब सोच-विचार कर एक योजना बनाई और कार्य प्रारम्भ कर दिया। उसने अपना एक विश्वस्त दूत पाण्डवों के पास भेज कर उन्हें प्रेम-प्रदर्शन पूर्वक आमन्त्रित किया । दूत खोज करता हुआ नासिक आया और विनयपूर्वक दुर्योधन का सन्देश निवेदन करने लगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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