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तीर्थंकर चरित्र
इसी प्रकार द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि गुरुजनों को प्रणाम कर और उनका विदाई उपदेश प्राप्त कर, धृतराष्ट्र के समीप गए और प्रणाम कर बोले
'काका ! हम आपको प्रणाम करते हैं । आप हम पर अपना स्नेह बनाये रखें और हमारी ओर से भाई दुर्योधन से कहें कि --
"भाई ! अपने कुरुवंश की प्रतिष्ठा बढ़े, वैसे कार्य करना और उसी प्रकार से प्रजा का पालन करना ।"
धृतराष्ट्र अपने पुत्र 'की अधमता से मन ही मन खिन्न थे और पाण्डवों की महानता वे जानते थे । किन्तु कुपुत्र के कारण उनका सिर झुका हुआ था । वे नीचा मुंह किये मौन ही रहे ।
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वृद्ध पाण्डु राजा और कुन्तीदेवी की दशा तो अत्यन्त दयनीय थी । उनका तो सर्वस्व जा रहा था । वे किस के सहारे लौटें। माता कुन्ती तो शोक की असह्यता मे मूच्छित ही हो गई । ऐसी स्थिति में विदुर ने रास्ता निकाला ।
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'भ्रातृवर ! पाण्डुदेव वृद्ध हैं, रोगी भी हैं । ये वन के कष्ट सहन नहीं कर सकेंगे। फिर भी पुरुष हैं, पुत्र-विरह का दुःख सहन कर सकेंगे । मैं, छोटी भाभी और सुभद्रादेवी इनकी सेवा करेंगे । सुभद्रा का पुत्र छोटा है, इसे भी साथ नहीं जाना चाहिए। भाभी कुन्तीदेवी पुत्रों का विरह सहन नहीं कर सकेगी । इन्हें जाने देना चाहिये । ये सब इन्हें सम्भाल सकेंगे ।”
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विदुर का परामर्श सब ने स्वीकार किया । कुन्ती दुविधा में पड़ गई । वह पति को छोड़ना भी नहीं चाहती थी और पुत्र विरह भी सहन नहीं कर सकती थी । अब वह क्या करे ? अन्त में भीष्मपितामह आदि से प्रेरित पाण्डु ने उसे भरी छती और रुँधे हुए कण्ठ से पुत्रों के साथ जाने की आज्ञा दी । कुन्ती ने भीष्मपितामह आदि ज्येष्ठजनों और पति के चरणों में सिर झुका कर, माद्री को छाती से लगाई और पति की अनवरत सेवा करती रहने की सूचना कर के कहा- बहिन ! नकुल और सहदेव मेरे पुत्रों से भी अधिक हैं । तुम उनकी चिन्ता मत करना । " माद्री ने कहा--" कैसी बात करती हो बहिन ! वे तो तुम्हारे ही हैं । उनका हिताहित आज तक तुम्हीं ने सोचा है । मैं तो तुम्हारा अनुसरण करने वाली रही हूँ । न तुमने कभी भेद माना, न मैने और भाइयों में कभी भिन्नता न रही। फिर उनकी चिन्ता मैं क्यों करूँ ? मुझे केवल यही विचार होता है कि इतने दिन में तुम्हारा अनुसरण करती हुई निश्चिन्त थी । अब मैं तुम्हारी शीतल छाया से वञ्चित रहूँगी ।"
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