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________________ पाण्डवों की हस्तिनापुर से बिदाई कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक तो राज्य प्राप्ति का विचार ही नहीं कर सकता और द्रौपदी को भी में हार कर उसे सौंप चुका था। इसलिए विवश हो कर बैठा रहा । द्रौपदी पर हमारा अधिकार या सम्बन्ध ही नहीं रहा था। नीति और सम्बन्ध से भी द्रोपदी उसकी भावज और उसी कुल की कुलवधू थी। उसने इस दुराचरण से अपनी खुद की लाज अपने हाथों से लुटाने की चेष्टा की। मुझे भी आश्चर्य हुआ कि उसने अपने हाथों अपनी प्रतिष्ठा क्यों नष्ट की। फिर भी उसे इस अपराध का दण्ड देने की प्रतिज्ञा, भाई भीमसेन ने की है। इसलिए आप यह कार्य इसी पर छोड़ दें।" युधिष्ठिर की न्याय-संगत बात सुन कर श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए और वन में पूर्ण सावधान रहने की सूचना की । अब वियोग का समय था। युधिष्ठिर अपने सभी बन्धुओं के साथ वृद्ध भीष्मपितामह के निकट आये और प्रणाम कर बोले;-- “पितामह ! आप हम सबके बड़े और गुरु हैं । आपने जीवनभर हमारा हित साधा है । हम आपके पूर्ण ऋणी हैं । दुर्भाग्य से हमें आपकी सेवा से वंचित होना पड़ रहा है । अब कृपा कर हमें कुछ उपयोगी शिक्षा प्रदान करें।" __ युधिष्ठिर का विनय सुन कर भीष्मदेव का हृदय भर आया । किन्तु शीघ्र ही सम्भल कर बोले ___ "वत्स ! तुम नीतिपरायण हो । सत्य और धर्म के आराधक हो । तुम्हारा धर्म, तुम्हारी रक्षा करेगा । किन्तु एक व्यसन जो तुमने अपनाया है, उसे त्याग दो। व्यसन मात्र बुरा होता है । भवितव्यता टाली नहीं टलती। हम तो तुम्हारे साथ ही रहना चाहते हैं । जो भी सुख-दुःख होगा, साथ ही सहेंगे । इसी विचार से हम हस्तिनापुर से निकले हैं। तुम हमें छोड़ने का विचार मत करो।" "नहीं दादा ! यह कदापि नहीं हो सकता । आप सब को वहीं रहना होगा। नहीं, नहीं........कहते हुए युधिष्ठिर ने चरणों में सिर रख दिया।" भीष्मदेव को मानना पड़ा। उन्होंने बिदाई-शिक्षा देते हुए कहा-- "वत्स ! राजा को अपनी श्रेष्ठता के पांच प्रतिभू (जामिन) अपनाना चाहिये। यथा-१ दान २ सद्ज्ञान ३ सत्पात्र संचय ४ सुकृत और ५ सुप्रभुत्व । ये पांच प्रतिभू उत्थानकारी है। इनका ग्रहण करना और सात व्यसन, अज्ञानता, असत्य तथा कामक्रोधादि परिपु, ये पन्द्रह पतनकारी है। इनका त्याग कर के सावधानीपूर्वक विचरना । विचलित नहीं होना उौर वनवास-काल पूर्ण होते ही शीघ्र लौट कर आना। हम सब तुम्हारी प्रतीक्षा में रहेंगे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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