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________________ ४७६ $$$$$ तीर्थङ्कर चरित्र $ $ $ $ $ $$$ $$ $ $$$$$ खिलाया । भोजनोपरान्त सब विश्राम कर के बातचीत कर रहे थे कि द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न वहां आ पहुँचा । प्रणाम-नमस्कार के पश्चात् उसने निवेदन किया "हमारे गुप्तचरों द्वारा आपके वनवास का दुःखद समाचार जान कर, पूज्य पिताश्री ने मुझे आप सब को अपने यहां लाने के लिए भेजा है। वह घर भी आप ही का है । पधारिये वहां और सुखपूर्वक रहिये । दुष्ट दुर्योधन का पराभव कर पुनः राज्य प्राप्ति के लिए मैं स्वयं युद्ध में उतरूँगा । आप निश्चिन्त रहिये और मेरे साथ चलिये।" "महाशय ! यह समय हमें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वन और विदेश-भ्रमण में ही बिताना है । राज्य प्राप्ति उद्देश्य होता, तो हम स्वयं ही ले-लेते । आप अपनी बहिन और भानजों को ले मा सकते हैं। वे हमारे साथ रहने के लिए बाध्य नहीं हैं।" धृष्टद्युम्न ने द्रोपदी से भी बहुत आग्रह किया, परन्तु उसने एक ही उत्तर दिया; ___ "भाई ! पति के साथ रह कर मैं भयंकर विपदाओं में भी सुखी रहुँगी और पृथक् रह कर राजसी-वैभव में भी, दिन-रात मन-ही-मन सुलगती रहूँगी । मैं तो इनके साथ ही रहूँगी । तुम अपने इन पांचों भानजों को ले जाओ।" धृष्टद्युम्न अपने पांचों भानजों को ले कर चला गया । दूसरे दिन द्वारिकापति श्रीकृष्ण उन्हें मिलने आये । पाण्डवों ने श्रीकृष्ण का आदर-सत्कार किया । पाण्डवों से मिल कर श्रीकृष्ण अपनी बुआजी राजमाता कुन्ती देवी के पास आये और प्रणाम किया। वृद्धा बूआ ने उन्हें आशीर्वाद दिया। फिर वार्तालाप प्रारम्भ हुआ । श्रीकृष्ण ने कहा ;-- __“राजन् ! दुष्ट दुर्योधन ने कपटपूर्वक जूआ खेल कर आपसे राज्य ले लिया। उसकी ठगाई की बात मुझे मालूम हो गई। उसके इस मायाचार में सहायक हुए--कर्ण और शकुनि । भवितव्यता ही कुछ ऐसी थी कि उस समय आपके पास में नहीं था, अन्यथा ऐसा नहीं हो सकता। ये भीम और अर्जुन भी आपके अनुवर्ती हो कर रहे । अन्यथा ये ही उस दुष्ट को समाप्त कर सकते थे। अब भी आपके शत्रु का संहार करना कठिन नहीं है। यदि आप निषेध नहीं करें, तो अब भी उस बिगड़ी बाजी को सुधारा जा सकता है । उन दुष्टों की अधमता पर तो मैं भी क्षुब्ध हूँ-जो उन्होंने ऋतुस्नाता द्रोपदी के साथ भरी सभा में की। उस पाप का फल तो उन्हें मिलना ही चाहिए । मैं उसे इसका दण्ड देने को तत्पर हैं।" "महाराज ! आप वासुदेव हैं और समर्थ हैं । आपके कोपानल से बचने में कोई समर्थ नहीं है और आपकी हम पर पूरी कृपा है । किन्तु मैं वचनबद्ध हूँ। तेरह वर्ष के पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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