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पाण्डवों की हस्तिनापुर से बिदाई
उनकी आत्मा दुर्योधन को धिक्कार रही थी । पाँचों बन्धु और द्रौपदी वन में आगे बढ़े । आज वे राजाधिराज से रॉक एवं निराधार बन कर वन में जा रहे थे ।
पाण्डवों की हस्तिनापुर से बिदाई
इन्द्रप्रस्थ से चल कर वनवासीदल हस्तिनापुर आया और हस्तिनापुर से अपने अस्त्र-शस्त्रादि ले कर वन में जाने लगा । पाण्डु, भीष्म, विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, राजमाता कुन्ती, माद्री आदि सम्बन्धीजन और नागरिकजनों का समूह भी उनके साथ चलने लगा। नगर के बाहर आ कर, युधिष्ठिर ने गुरुजनों को प्रणाम कर लौट जाने का आग्रह किया, किंतु किसी ने स्वीकार नहीं किया । सभी की आँखों में अश्रुधारा बह रही थी । नागरिकजन अपनी श्रद्धा एवं भक्ति के केन्द्र, प्रजावत्सल महाराजाधिराज का वियोग सहन नहीं कर सकते थे। सारी प्रजा महाराज युधिष्ठिरजी के पक्ष में, दुर्योधन से विरोध करने और उसे युद्ध में कुचल देने पर तत्पर थी । किन्तु युधिष्ठिरजी नहीं माने। उन्होंने धर्म का बोध दे कर समझाया और कहा-
" आपका स्नेह हम पर अपार है । यह स्नेह हमारे लिये कवच बन कर रक्षा करेगा । राजा तो बदलते रहते हैं । एक के बाद दूसरा होता है, परन्तु राज्य स्थायी होता है। दुर्योधन भी हमारा भाई है । वह आपका योग्य शासक सिद्ध होगा । आप चिन्ता नहीं करें । बारह वर्ष के बाद हम फिर आपके दर्शन करेंगे । अब प्रसन्नतापूर्वक हमें बिदा दे कर लौट जाइए ।"
युधिष्ठिर का अनुरोध किसी ने नहीं माना और बस साथ ही चलते रहे । पहली रात काम्यवन में रहे । यहाँ सब के लिये भू-शैय्या ही थी । आधी रात के लगभग एक भयंकर राक्षस आया और द्रौपदी के निकट गर्जना करने लगा । द्रौपदी भयभीत हो कर चिल्लाई । भीम गदा ले कर राक्षस पर झपटा और एक ही प्रहार में उसको भूशायी कर दिया । वह दुष्ट राक्षस, दुर्योधन का मित्र था और उसी की प्रेरणा से, पाण्डवों का विनाश करने आया था । भीम का पराक्रम देख कर सभी प्रसन्न हुए । उन्हें विश्वास हो गया कि भीम और अर्जुन की प्रबल शक्ति के कारण सारा परिवार सुरक्षित रहेगा । प्रातःकाल भोजन की समस्या थी । नागरिकजनों को तो समझा कर लोटा दिया गया । परन्तु कौटुम्बिकजन रुके रहे । अर्जुन ने 'आहार आहरक' विद्या का स्मरण किया । तत्काल भोज्य-सामग्री प्राप्त हुई और द्रौपदी ने भोजन बना कर सब को
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