________________
अर्जुन द्वारा डाकुओं का दमन और विदेश गमन
spoteofsasaslesha sachchhaashaalasashesha shashasa
४५९
प्रतिज्ञा को कुछ भी ठेस लगे। तुम तो प्रजा की हित रक्षा के लिए और डाकू-वृत्ति को कुचलने के लिए गए थे । इसमें तुम्हारा स्वार्थ किञ्चित् भी नहीं था । इसलिए प्रतिज्ञा-भंग का भ्रम त्याग दो और भवन में चलो ।"
sastaste
नरेश की बात का समर्थन कुन्ती युधिष्ठिरादि सभी ने किया । किन्तु अर्जुन को संतोष नहीं हुआ । उसने कहा
' आपका कथन यथार्थ है । किन्तु हमारा उच्च कुल तनिक भी दोष को स्थान नहीं देता । यदि आज प्रतिज्ञा के बाह्य नियम की, सकारण भी उपेक्षा की गई, तो आगे चल कर दूसरों के लिए उदाहरण बन कर, मूल-व्रत ही नष्ट होने लग जायगा । मैं नहीं चाहता कि मेरी ओट ले कर कोई उत्तम मर्यादा को खंडित करने लगे । आज की यह उपेक्षणीय सूक्ष्म बात, आगे चल कर बड़ी विराट और भयानक बन सकती है । उच्च संस्कृतियों का पतन इसी प्रकार होता है । आप मुझे प्रसन्नतापूर्वक बिदा कीजिए । बारह
अधिक नहीं है | आपके शुभीशिष से मैं सकुशल लोट आऊँगा ।"
सभी को खिन्नता एवं उदासीनतापूर्वक बिदाई देनी पड़ी। अर्जुन सभी ज्येष्ठजनों को प्रणाम और कनिष्टजनों को स्नेहालिंगनादि करके द्रौपदी के पास आये । द्रौपदी भी विमनस्क खड़ी थी । उसने धैर्यपूर्वक कहा;
'आर्यपुत्र ! आप महान् हैं | अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए आप कठोर प्रायश्चित्त कर रहे हैं। में आपके वारे के दिन-रात निराहार रह कर आपका स्मरण और हितकामना करती रहूँगी । आपकी यह प्रायश्चित्त यात्रा सफल हो । आप नयी विद्या, कला, लक्ष्मी एवं विजयश्री सहित शीघ्र लोट कर स्वजनों को आनन्दित करें ।”
Jain Education International
द्रौपदी का गला रुँघने लगा । आँखों में पानी आने वाला ही था कि वह सँभल गई और मुख चन्द्र पर हास्य की झलक लाती हुई कुछ पांवडे साथ चल कर बिदाई दी । अर्जुन अपने मन को संयत एवं दृढ़ बना ही चुका था । अपना धनुष-बाण ले कर वह अनिश्चित्त स्थान की ओर चलने लगा ।
सभी स्वजन - परिजन एवं नागरिकजन अर्जुन के प्रयाण को खिन्नतापूर्वक देख रहे थे । गोपाल - अहीर लोगों का समुदाय, अर्जुन के इस कठोर प्रायश्चित्त का कारण अपने को ही मानता हुआ सारा अपराध अपने सिर समझ कर, ग्लानि का अनुभव करने
लगा ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org