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________________ ४५८ तीर्थंकर चरित्र Postastasashacha chofactosfactactasechscsessesfash sasacchese casesh sash chash stachachchchcha chachaftechssssss 'भाइयों ! घबड़ाओ मत। मैं डाकुओं का दमन कर के तुम्हारी सभी गायें लाऊँगा । में अभी जा रहा हूँ । जब तक तुम्हारी गायें डाकुओं से नहीं छुड़ा लूं, तब तक में भी अन्न-जल नहीं लूंगा और खाली हाथ नगर में भी नहीं लौटूंगा । अब तुम निश्चित हो कर जाओ ।" अर्जुन के शब्दों ने सभी गोपालों को संतुष्ठ कर दिया। वे अर्जुन का जयजयकार करते हुए लौट गए । अर्जुन उसी समय डाकुओं से गौओं को मुक्त कराने के लिए जाने लगे। किंतु उनका धनुष और बाणों से भरा तूणीर द्रौपदी के शयन कक्ष में रखा हुआ था और उस रात युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ थे । अर्जुन के सामने समस्या खड़ी हुई । वे नियम के विरुद्ध वहाँ कैसे जावें ? उन्होंने तत्काल निर्णय कर लिया और द्रौपदी के शयन कक्ष में प्रविष्ट हो गए। उस समय द्रौपदी और युधिष्ठिर निद्रामग्न थे । अर्जुन अपना धनुषबाण ले कर लौट गए और डाकुओं की दिशा में वेगपूर्वक दौड़े। कुछ घंटों में ही वे डाकू-दल तक पहुँच गए । उन्होंने डाकुओं को ललकारा। युद्ध छिड़ गया। थोड़ी ही देव में डाकू दल क्षत-विक्षत हो गया। कुछ तो घायल हो, भूमि पर गिर कर तड़पने लगे और कुछ भाग गए । डाकुओं का दमन हो जाने के बाद अर्जुन गौओं के विशाल झुण्ड को लेकर लौटे। नगर के निकट आ कर सभी गौएँ अपने-अपने स्थान पर चली गई । गोपाल लोग उनकी प्रतीक्षा में ही थे । उन्होंने हर्षोन्मत्त हो अर्जुन का जयजयकार किया। अर्जुन नगर के बाहर ही रुक गया और राजभवन में माता-पिता और बन्धुवर्ग के समीप एक गोप के द्वारा निवेदन कराया कि- " मैने स्वीकृत प्रतिज्ञा का भंग किया है। इसलिए में प्रायश्चित्त स्वरूप बारह वर्ष तक नगर प्रवेश नहीं कर सकूंगा । मेरा यह काल विदेश भ्रमण में व्यतीत होगा । आप सब मुझे आशीर्वाद दीजिये ।" "" अर्जुन का सन्देश सुन कर सभी परिवार चकित रह गया। माता-पिता और बन्धुगण नगर के बाहर आ कर, अर्जुन से नगर-त्याग का कारण पूछने लगे । अर्जुन ने कहा; 'मैने प्रतिज्ञा की थी कि में नियम के विपरीत द्रौपदी के कक्ष में नहीं जाऊँगा । किन्तु गत रात्रि में मुझे अपना धनुष-बाण लेने जाना पड़ा । इससे मेरी प्रतिज्ञा खंडित हो गई । मुझे इसका प्रायश्चित्त करना है । प्रायश्चित्त कर शुद्ध होने के लिए मैं बारह बर्ष के लिए विदेश में भ्रमण करता रहूँगा । आप मुझे आशीर्वाद दे कर बिदा कीजिए ।" अर्जुन की बात सुन कर पाण्डु नरेश ने कहा- ." 'वत्स ! तुम्हारी प्रतिज्ञा अक्षुण्ण है। तुम द्रौपदी के कक्ष में मोहवश या किन्हीं ऐसे विचारों से नहीं गए, जिससे तुम्हारी Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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