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________________ ४५६ Quesdasegaodeobdasashdeosbdesesedesdeshsodesbdesbsesbdesesedestoresbdedese.dedesedstessedeededesbdedessestdesisedesterdadesdeshe तीर्थङ्क चरित्र विवाहोत्सव होने लगा। उसी समय नारदजी उपस्थित हुए। प्रासंगिक बातचीत के बाद नारदजी ने पांचों बन्धुओं को उपदेश देते हुए कहा; "मैं तुम पांचों बन्धुओं का एक द्रोपदी के साथ लग्न होना सुन कर ही यहां आया हूँ । भवितव्यतावश अनहोनी घटना हो गई । किन्तु इससे कोई अनर्थ खड़ा नहीं हो जाय, इसका तुम सब को पूरा ध्यान रखना है। सभी प्रकार के अनर्थों का मूल मोहकर्म है । मोह के वशीभूत हो कर मनुष्य भान भूल जाता है । स्त्री के निमित्त से वैर की उत्पत्ति होना स्वाभाविक है। रत्नपुर नगर के श्रीसेन राजा के दो पुत्र थे-इन्दुसेन और बिन्दुसेन । दोनों का परस्पर गाढ़ स्नेह था । यौवनवय प्राप्त होने पर राजा ने दोनों का लग्न कर दिया । दोनों भ्राता सुखपूर्वक रहते थे। उस नगर में अनंगसेना नाम की एक वेश्या रहती थी। उसकी रूप-सुधा देख कर दोनों राजकुमार मोहित हो गए। एक ही स्त्री पर दो राजकुमारों का मुग्ध होना और स्नेह-शाति बनी रहना असंभव था । साधारण मनुष्य भी एक वस्तु पर अपना एकाधिकार चाहता है, तब एक अनुपम स्त्री-रत्न पर राजकुमार जैसे अभिमानी व्यक्ति अपना पूर्ण एकाधिपत्य नहीं रख कर, दूसरे का साझा कैसे सहन कर सकते थे? उन दोनों का स्नेह, द्वेष रूपी आग में जल गया । एक-दूसरे के शत्रु बन गए । राजा ने जब यह वात जानी, तो अत्यन्त दुखी हुआ। उसने दोनों पुत्रों को बुला कर समझाया, परन्तु मोह -मुग्ध पुत्रों पर पिता के उपदेश का उलटा प्रभाव हुआ। वे एकदूसरे को सोम्य-दृष्टि से देख भी नहीं सकते थे । पिता के सामने ही दोनों झगड़ने लगे । राजाज्ञा से उन्हें उस समय बलात् पृथक् पृथक् कर के झगड़ा टाला गया। किन्तु राजा के हृदय पर इस घटना ने भयंकर आघात लगाया । उसे जीवन भारभूत लगने लगा। राजकुल की वदनामी उससे नहीं देखी जा सकी। वह विष-पान कर के मर गया। राजा की मृत्यु के शोक में निमग्न हो कर दोनों रानियां भी मर गई और निरंकुश दोनों कुमार आपस में लड़ कर कट मरे + । स्त्री-माह ने दो भाइयों के स्नेह में आग लगा कर पांच मनुष्यों के प्राण लिये। फिर तुम तो एक स्त्री पर पांच बन्धु अधिकार रखते हो तुम्हें आज से ही प्रतिज्ञाबद्ध हो जाना चाहिए । जव एक व्यक्ति द्रौपदी के अन्तःपुर में हो, तब दूसरे को प्रवेग ही नहीं करना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक दिन के वारे से द्रौपदी के पास जाना चाहिए । यदि तुम इस प्रकार मर्यादा में रहोगे, ता तुम्हारा + यह कया भ. शांतिवाय के चरित्र भाग १ पृ. ३.४ में भी है, परंतु दोनों में कुछ अन्दर है। रस बर-विस्त हो प्रजित होकर मस्किारने का उल्लेख हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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