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- "नहीं, मस्तक नहीं, तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर मुझे दे दो ।" एकलव्य ने उसी समय छुरी से अंगूठा काट कर गुरु चरणों में रख दिया । आचार्य प्रसन्न हुए और एकलव्य को वरदान दिया--" अंगूठा कटने पर भी तेरा काम नहीं रुकेगा । अंगुलियों से तू अपना काम चला सकेगा ।"
आचार्य और अर्जुन वहाँ से आश्रम में लौट आए और राजकुमारों का अभ्यास पूर्ववत् चलता रहा ।
कुमारों की कला - परीक्षा
गए
पाण्डव और कौरव - कुमार विद्याध्ययन कर के उनको परीक्षा लेने का निश्चय किया । वे उन्हें वन में ले ऊँची डाल पर, मयूरपंख की चन्द्रिका लटकाई गई । वृक्ष परीक्षार्थियों के साथ खड़े हो कर द्रोणाचार्य बोले--- 'पुत्रों ! आज मैं तुम्हारे लक्ष्य वेध की परीक्षा ले
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तीर्थंकर चरित्र
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रहा
| वह देखो, उस वृक्ष
पर मयूर चन्द्रका लटक रही है । तुम्हें उस चन्द्रिका को वेधना है । आज की यह परीक्षा तुम्हारे आगे के अध्ययन की योग्यता सिद्ध करेगी । लक्ष्यवेध करने वाला ही आगे बढ़ सकेगा । तुम्हारा लक्ष्य ठीक होगा, तो उत्तीर्ण हो सकोगे और आगे भी बढ़ सकोगे । हां, अब चालू करो ।”
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सभी परीक्षार्थी लक्ष्य की ओर टकटकी लगा कर देखने लगे, देखते रहे । आचार्य ने पूछा--" तुम्हें क्या दिखाई देता है ?'
"हमें वृक्ष भी दिखाई देता है, वृक्ष की शाखा प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल और मयूरपंख भी दिखाई देता है और आप भी दिखाई दे रहे हैं ।"
--" तब हट जाओ तुम ! लक्ष्य नहीं वेध सकते " -- आचार्य ने आदेश दिया । वह छात्र हट गया । उसके बाद दूसरा, तीसरा, इस प्रकार क्रमशः आते गये। किसी ने कहा" मुझे वृक्ष का ऊपर का हिस्सा दिखाई देता है । किसी ने कहा -- मुझे शाखा और पत्रपुष्पादि दिखाई देते हैं ।" किसी ने – “ लक्ष्य के निकट के पत्र-पुष्पादि दिखाई देना बताया।" आचार्य को कोई भी उपयुक्त नहीं लगा । अन्त में अर्जुन की बारी आई। उसने कहा'गुरुदेव ! मुझे केवल चन्द्रिका ही दिखाई देती है ।"
आचार्य ने उसे राधावेध के उपयुक्त माना ।
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निष्णात हो गए । द्रोणाचार्य ने और एक बड़े ताड़-वृक्ष की सघन था । वृक्ष से कुछ दूर
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