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________________ एकलव्य की विद्या - साधना ta chacha startastastasa chotasteseshosteststastashastestostechshalashchatasechsheshacacoc एकबार अर्जुन वन-विहार करने अकेले ही चल दिये । हटात् उनकी दृष्टि एक कुत्ते पर पड़ी, जिसका मुंह बाणों से भरा हुआ था । उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही । उसने सोचा--" ऐसा निष्णात धनुर्धर कौन है, जो कुत्ते के मुँह खोलते ही ठीक उसके मूँह में बाण मारे, बाणों से मुंह भर दे और फिर भी कुत्ता जीवित रहे ? गुरुदेव तो कहते थे कि तू सृष्टि में अद्वितीय धनुर्धर होगा, किंतु यह तो मुझसे भी अधिक निपुण लगता है । अवश्य ही वह गुरुदेव का ही कोई शिष्य होगा । परन्तु गुरुदेव ने अपने ऐसे निपुण शिष्य को मुझसे गुप्त क्यों रखा और मुझे अद्वितीय क्यों बताया ? " वह विचारों में उलझ गया । फिर सावधान हो कर सोचा -- " वह कहीं निकट ही होगा ।" वह कुत्ते के आगमन की दिशा में चला । थोड़ी ही दूर उसे धनुर्धर एकलव्य दिखाई दिया । उसने उसका परिचय पूछा। एकलव्य ने अपना परिचय देने के साथ गुरु का नाम भी बताया अर्जुन वहाँ से चल कर स्वस्थान आया। उसके मन में एकलव्य और गुरुदेव का ही चिन्तन चल रहा था । उसने आते ही गुरुदेव से पूछा । द्रोणाचार्य ने कहा - " वत्स ! मैं भी यही कहता हूँ कि मेरे शिष्यों में तेरे जैसा कोई लक्ष्य वेधी नहीं है । तू सन्देह क्यों करता है ? तेरा मुख निस्तेज क्यों है ?" -" गुरुदेव ! मैंने आज एक ऐसे व्यक्ति को देखा है जो धनुर्विद्या में मुझ से भी अधिक निपुण है । उसने भोंकते हुए कुत्ते के मुँह को बाणों से भर दिया और कुत्ता घायल भी नहीं हुआ, और वह युवक अपने को आपका ही शिष्य बतलाता है ।" द्रोणाचार्य स्तब्ध रह गए। उन्होंने कहा - 'मैं उसे देखना चाहता हूँ ।" आचार्य और अर्जुन, एकलव्य के पास पहुँचे । एकलव्य प्रसन्न हुआ और आचार्य के चरणों में प्रणिपात किया कुशलक्षेम के पश्चात् पूछने पर एकलव्य ने अपने शिक्षागुरु के विषय में कहा - "मेरे गुरु आप ही हैं। इन पवित्र चरणों की कृपा से ही मैने कुछ सीखा है ।" --" परन्तु मैने तो तुझे सिखाया नहीं, फिर तू मुझे अपना गुरु कैसे बताता है ?" "गुरुदेव ! आपके निषेध करने पर पहले तो मैं हताश हुआ, परन्तु फिर सम्भल कर, आप द्वारा राजकुमारों को दी जाती हुई शिक्षा और राजकुमारों का अभ्यास देख कर मैने तदनुसार अपना अभ्यास चलाया । आपने मुझे शिक्षा नहीं दी, फिर भी मैंने आपसे ही शिक्षा प्राप्त की । आप ही मेरे गुरु हैं ।" आचार्य चकित रह गए। उन्होंने कहा - " अब तुझे गुरु-दक्षिणा भी देनी चाहिए।' --" अवश्य गुरुदेव ! आज्ञा कीजिए । मेरा सब कुछ आपके अर्पण है । यह मस्तक भी आपके चरणों में अर्पित है ।" Jain Education International ४४७ asasasasasasasasasasasasas " For Private & Personal Use Only "" www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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