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________________ ४४६ तीर्थंकर चरित्र bsaslesbetasesasetteshdesaseshostestashshdodesdesisesejeleseseseseseservestedesesteofestvedeodedesese-testeofasi-deofesdesiasleblesfestosteofestheteshd उससे मैत्री जोड़ना दुर्योधन को आवश्यक लगा । __ अभ्यास आगे बढ़ने लगा। अन्य छात्र लगनपूर्वक अभ्यास करने लगे, किन्तु दुर्योधन के अभ्यास में अर्जुन के प्रति जलन बनी ही रहती थी। अर्जुन ऐसे क्षुद्र विचार वाला नहीं था। उसका अभ्यास पूर्ण मनोयोग के साथ चल रहा था। एकलव्य की विद्या साधना हस्तिनापुर के वन में रुद्रपल्ली नाम का एक आदिमजाति का छोटा-सा गाँव था। वहां हिरण्यधनुष का एक कोली जाति का मनुष्य रहता था। उसके पुत्र का नाम 'एकलव्लय' था। वह युवक बलिष्ट था और अपनी धुन का पक्का था । वह एकबार हस्तिनापुर आया। उसने नगर के बाहर राजकुमारों को धनुविद्या की साधना करते देखा । सभी छात्र लक्ष्य-वेध कर रहे थे और द्रोणाचार्य उन्हें निर्देश दे रहे थे । एकलव्य एक ओर खडा रह कर देखने लगा । वह वन वासी था । वन में रहने वाले क्रूर एवं हिंस्र पशुओं और दस्युओं से अपनी, परिवार की तथा पशुधन की रक्षा करने के लिए धनुष-बाण परम उपयोगी अस्त्र था। एकलव्य धनुष चलाना तो जानता था, परंतु उसी ढंग से--जिससे कि उसके सहवासी अपना काम चला रहे थे । एकलव्य एकटक देखता रहा । उसकी रुचि बढ़ी। उसने द्रोणाचार्य को प्रणाम कर के विद्यादान करने की प्रार्थना की। आचार्य ने एकलव्य को देखा, कुल-जाति आदि पूछी और निषेध कर दिया । एकलव्य निराश हो कर एक ओर जा कर खड़ा-खड़ा देखने लगा । थोड़ी देर में उसने निराशा छोड़ कर साहस सँभाला। वह आचार्य के निर्देश और तदनुसार छात्रों की प्रवृत्ति देख कर उत्साहित हुआ। आचार्य के अस्वीकार से इसका मार्ग अवरुद्ध नहीं हुआ। नहीं । वह अर्जुन की लक्ष्य की ओर एकाग्रता और शारीरिक प्रवृत्ति हृदयंगम करता रहा । उसके हाथ-पाँव भी वैसी चेप्टा करने लगे। जब समय पूरा होने पर छात्रगण अपने स्थान की ओर जाने लगे, तब वह भी वहाँ से चला और अपने घर आया । उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बना कर एक शिलाखंड पर रखी और प्रणाम कर के लक्ष्य-वेध का अभ्यास, उसी प्रकार करने लगा जिस प्रकार उसने राजकुमारों को देखा था। बीच-बीच में वह नगर में आ कर छोत्रों का अभ्यास देख कर हदयंगम कर लिया करता और अपना अभ्यास तदनुरूप चलाता रहता। क्षयोपशम की तीव्रता से वह निष्णात बन गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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