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कृपाचार्य और द्रोणाचार्य • • • • • •$$
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पुरुष आये। उनके साथ एक तरुण पुरुष था। उन्होंने सारी स्थिति समझी और बोले"युवकों ! तुम राजवंशी कला-प्रवीण हो कर भी कुएँ में से कन्दुक नहीं निकाल सके ? लो देखो, कन्दुक इस प्रकार निकलता है ।" इतना कह कर वृद्ध ने एक पतली सलाई उठा कर कन्दुक को ताक कर फेंकी । सलाई कन्दुक में प्रवेश कर गई, फिर दूसरी सलाई फेंकी। उसकी नोक पहली सलाई की पीठ में गढ़ गई । इस प्रकार तीसरी, चौथी, यों सलाइयों को जोड़ते हुए किनारे तक एक के पीछे दूसरी जुड़ गई । इस प्रकार उन्होंने कन्दुक निकाल कर खिलाड़ियों की ओर उछाल दिया। युवक-समूह वृद्ध की यह कला देख कर मन्त्रमुग्ध हो गया। सभी ने वृद्ध के चरणों में प्रणिपात किया और परिचय पूछा । वृद्ध ने कहा-" तुम्हारे आचार्य मेरे सम्बन्धी हैं । मैं उन्हें मिलना चाहता हूँ। मुझे उनके पास ले चलो।" वृद्ध और उनका तरुण साथी, युवक-समूह से घिरे हुए कृपाचार्य के निवास पर पहुँचे । द्रोणाचार्य को आया देख कर कृपाचार्य अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने आगे बढ़ कर द्रोणाचार्य को नमस्कार किया और आदरपूर्वक उच्चासन पर बिठाया । द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने कृपाचार्य को प्रणाम किया । धनुविद्या में द्रोणाचार्य उस समय के अजोड़ एवं अद्वितीय आचार्य थे । कृपाचार्य ने भीष्म पितामह से द्रोणाचार्य का साक्षात्कार कराया। भीष्म-पितामह ने आदर एवं आग्रहपूर्ण द्रोणाचार्य को, राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए रख लिया । द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों के अभ्यास को देखापरखा और जान लिया कि सभी योग्य हैं, किंतु अर्जुन सर्वोपरि है । एक और युवक भी तेजस्वी दिखाई दिया। किंतु वह राजकुमार नहीं होकर एक साधारण व्यक्ति का पुत्र था । द्रोणाचार्य ने उसका परिचय पूछा । कृपाचार्य ने कहा-“यहाँ एक विश्वकर्मा नाम का अभ्यागत था। उसके राधा नाम की पत्नी थीं। वे सदाचारी थे। उनका यह पुत्र है । इसका नाम "कर्ण" है । यह एक ही छात्र ऐसा है जो राजवंशी नहीं है, फिर भी यहां अध्ययन करता है । यह इसकी विद्यारुचि का परिणाम है।" द्रोणाचार्य ने देखा कि कर्ण भी योग्य पात्र है । वह अर्जुन की समानता तो नहीं कर सकता, परंतु अन्य सभी राजकुमारों से श्रेष्ठ है । अर्जुन के बाद दूसरा स्थान कर्ण का ही है । शेष सभी उसके पीछे हैं । अभ्यास आगे बढ़ने लगा । द्रोणाचार्य उत्साहपूर्वक अभ्यास करवाते थे और सभी छात्र उतने ही उत्साह से अभ्यास करते थे । अर्जुन का विनय और शीघ्र ग्राहक-बुद्धि से द्रोणाचार्य प्रसन्न थे। उन्होंने अर्जुन को अद्वितीय योग्य पात्र माना । अर्जुन पर आचार्य की कृपा बढ़ती गई। परन्तु अर्जुन पर गुरु की विशेष कृपा, दुर्योधन के मन में खटकी । वह मन ही मन जलने लगा। उसने कर्ण से मैत्री-सम्बन्ध जोड़ा। कर्ण को अर्जुन के समान धनुर्धर मान कर,
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