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________________ गांगेय की भीष्म-प्रतिज्ञा ४२७ Insiesesedejadesesedesisdesestatesterestedesesedasesedesesedesesedesesesedese sestedeseseksedodernstoofastesetestedeodesbosdadastisparda परंतु जरा दीर्घ-दृष्टि से देखिये महाराज ! यदि सत्यवती के पुत्र हुआ, तो क्या उसका राज्याभिषेक हो सकेगा? गांगेय जैसे आदर्श एवं वीर-शिरोमणि युवराज के होते हुए, मेरा दौहित्र राजा नहीं हो सकेगा। उस समय सत्यवती के मन में संताप होगा। वह यह सोच कर जलती रहेगी कि--'महाराजाधिराज राजराजेश्वर का पुत्र हो कर भी यह राज्यहीन मात्र सेवक ही रहा ।' यह चिन्ता उसे सुखी नहीं रहने देगी--स्वामिन् !" --"हं . . . . . राजा कुण्ठित हो गया। कुछ क्षण सोचने के बाद बोला-"नहीं, केवट ! इसका उपाय मेरे पास नहीं है । मैं गांगेय के प्रति अन्याय नहीं कर सकता । यदि तुम्हारी इच्छा नही है, तो मैं लौट जाता हूँ । अन्याय का कार्य मुझ-से नहीं होगा "-- कहते हुए महाराज शान्तनु निराशापूर्वक लौट गए । नाविक खड़ा-खड़ा देखता रहा । राजा अपनी शय्या पर सोये हुए करवट बदल रहे हैं । उनकी निद्रा लुप्त हो चुकी है । मुख म्लान और निस्तेज हो गया है। भूख-प्यास मिट गई है । वे न किसी से मिलते और न गज-काज की ओर ध्यान देते हैं । सत्यवती ही उनके मानस-भवन में उद्वेग मचा रही थी। महाराजा की दशा देख कर पितृ-भक्त गांगेय को चिन्ता हुई। उसने पिता से चिन्ता का कारण पूछा, परंतु राजा बता नहीं सका । कुमार ने महामात्य से कहा । महामात्य के पूछने पर राजा ने कहा-- "मुझे कहते संकोच होता है, परंतु तुम मेरे मित्र भी हो। तुम से छिपाना कैसा ? नाविकों के नायक की पुत्री सत्यवती ने मेरा मन हर लिया है । मैंने उसके लिए नाविक से मांग की। नाविक सत्यवती को देने को तय्यार है । परंतु उसकी एक शर्त ऐसी है कि जिसे मैं स्वीकार नहीं कर सका । फलत: मैं निराश हो कर लौटा । वही सुन्दरी मुझे नड़पा रही है । उसी के विचारों ने मेरी यह दशा बना दी है । इसके सिवाय मुझे और कोई दुःख नहीं है।" वह कौनसी शर्त है--स्वामिन् ! जो पूरी नहीं की जा सकती' --मन्त्रीवर ने पहा । "मित्र ! केवट बड़ा चालक है । वह कहता है कि 'मेरी पुत्री के पुत्र हो, तो आपका उत्तराधिकार उसी को मिलना चाहिए ।' यह शर्त मानने पर ही वह अपनी पुत्री मझे दे सकता है । ऐसी शर्त मानना तो दूर रहा, में उस पर विचार ही नहीं कर सकता।" महामन्त्री भी अवाक रह गया । वह क्या बोले । फिर भी केवट को समझाने का आश्वासन देकर महामन्त्री चले आये और राजकुमार गांगेय को सारा वृत्तान्त सुनाया । गांगेय ने विचार कर कहा-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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