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तीर्थङ्कर चरित्र
"नाविकराज ! यदि तुम अपनी यह पुत्री मुझे दे सकते हो, तो में इसे अपनी रानी बनाना चाहता हूँ"--राजा ने अपनी अभिलाषा व्यक्त की।
"महाराज ! यह तो मेरे और सत्यवती पर ही नहीं, मेरे वंश पर ही देव की महान् कृपा हुई । मेरी पुत्री राजरानी बने और महाराज का मैं श्वशुर बनूं ? महाराजाधिराज मुझसे याचना करे, इससे बढ़ कर और क्या सौभाग्य हो सकता है ? परन्तु महाराज ! .............
____“परंतु ! परंतु क्या केवटराज ? शीव्र कहो । क्या चाहते हो"--महाराज ने परंतु के अवरोध से चौंक कर पूछा--
"राजेश्वर ! सत्यवती मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी है । मैं इसे सदैव हँसतीखेलती और सुखी देखना चाहता हूँ। यह राजेश्वरी बन कर भी क्लेशित रहे, इसका जीवन शोक-संतापमय बन जाय, तो वह राजवैभव भी किस काम का--महाराज ! इससे तो वह गरीबी ही भली कि जिसमें किसी प्रकार की उपाधि और क्लेश नहीं हो। प्रसन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत होता हो। सत्ता और वैभव आत्मा को सुख नहीं दे सकते महाराज!"--नाविकराज बड़ा चतुर एवं चालाक था। उसे विश्वास हो गया था कि राजा सत्यवती पर आसक्त है । आकाशवाणी का स्मरण भी उसे था ही। अतएव अधिकाधिक लाभान्वित होने की नीति अपना कर उसने राजा से कहा।
"स्पष्ट बोलो-नायक ! तुम किस क्लेश और संताप की बात कर रहे हो ? हस्तिनापुर और विशाल राज्य की राजमहिषी के लिए किस बात की कमी और दुःख की कल्पना कर रहे हो--तुम ! मेरे होते हुए भी इसे दुःख हो सकता है क्या ?" ।
"स्वामिन् ! मेरी आशंका दूसरी है । संसार में सौत के झगड़े प्रसिद्ध हैं। कहावत है कि-'सौत तो मिट्टी की भी बुरी होती हैं' । अपार वैभव में रहती हुई भी वह सौतिया-डाह में जलती रहती है । मैं जानता हूँ कि महारानी गंगादेवी, गंगा के समान पवित्र हैं और वे संसार से उदासीन हैं। फिर भी महाराज ! मेरा मन कुछ निश्चित नहीं हो पा रहा है।"
"केवटराज ! सत्यवती को न तो सपत्नी का क्लेश होगा और न मेरी और से किसी प्रकार का खेद होगा। इसका जीवन सुखी और आनन्दित रहेगा । तुम किसी प्रकार की आशंका मन में मत रखो और मुझ पर विश्वास रख कर सत्यवती को मुझे दे दो"-- राजा आतुर हो रहा था।
"पृथ्वीनाथ ! मुझे विश्वास है कि सत्यवतो को सौत का कोई भय नहीं रहेगा ।
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