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तीर्थदूर चरित्र
"मैं आपसे विनयपूर्वक निवेदन कर रहा हूँ -- महानुभाव ! उपदेश नहीं देता। मेरी प्रार्थना है कि इन मूक पशुओं पर दया कीजिये"--गांगेय विनयपूर्वक बोला ।"
-"में यहाँ मृगया के लिये आया हूँ। में क्षत्रिय हूँ । मृगया क्षत्रिय के लिए कला, शक्ति, उत्साह और आल्हादवर्द्धक खेल है। इसका निषेध करना मूर्खता है । तुम्हें किसी पाखण्डी ने भरमाया होगा। तुम दूर से मेरा खेल देखते रहो और यदि नहीं देख सकते, तो चले जाओ । मेरा अवरोध मत करो।"
-"महानुभाव ! आपके विचार मुझे उचित नहीं लगते । शक्ति और कला के अभ्यास के लिए मृगया आवश्यक नहीं है। किसी निर्जीव वस्तु को लक्ष्य बना कर भी अभ्यास हो सकता है । मैने ऐसा ही किया है। मृग या से तो करता में वृद्धि होती है, पाप बढ़ता है और शिकारी अनेक जीवों की दृष्टि में एक काल--राक्षस के रूप में दिखाई देता है । उसकी आहट पा कर ही जीव भयभीत हहे जाते हैं। यदि वह हिंसा त्याग कर प्रेम एवं वात्सल्य का व्यवहार करे, तो ये पनु, उस मनुष्य के परिजन के समान बन जाते हैं । मेरे साथ इनका ऐसा ही सम्बन्ध है। इन उपवन में रहने वाले पश मझसे भयभीत नहीं होते, हरन् प्रेमपूर्वक मेरे साथ खेलते हैं। यदि आप यहाँ किसी को मारेंगे, तो इन पशुओं के प्रति मेरा अजित प्रेम नष्ट हो जायगा । मैं स्वयं इनके लिए शंकास्पद बन जाऊँगा । नहीं, नहीं आप यहां पशुओं पर शस्त्र प्रहार नहीं कर सकेंगे । में अपने आत्मीयजनों को आपके शस्त्र का लक्ष्य नहीं बनने दूंगा"-कुमार ने दृढ़ता से कहा ।
कुमार की वाणी, ओज और भव्यतादि से राजा प्रभावित अवश्य था, परन्तु बिना आखेट किये लौटना उसे अपमानकारक लगा । उसने कहा:--
"लड़के ! तुझे बोलना बहुत बढ़चढ़ कर आता है । चल हट यहाँ से"--कहते हए राजा ने नरकश से बरण निकाला।
कुमार ने देखा कि राजा अपने हठ पर ही दृढ़ है, तो वह क्रुद्ध हो गया। उसने आँख चढ़ाते हुए कहा--
___ "मैंने कहा-आप यहाँ शिकार नहीं खेल सकते में आपको यहाँ शर-संधान नहीं करने दूंगा । कृपया मान जाइए ।"
राजा ने अंगरक्षक की ओर संकेत किया। वह कुमार की ओर बढ़ा और उसे हाथ पकड़ कर हटाने की चेष्टा करने लगा, तो कुमार ने कहा--" मेरे उपवन में ही तुम मेरी अवज्ञा करना चाहते हो? चलो हटो--यहाँ से । अन्यथा पछताओमे।"
सुभट बलप्रयोग करने लगा, किन्तु एक क्षण में ही उसने अपने को पृथ्वी पर पहा
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