________________
सत्यवती
४१६
कि मेरे वचन-भंग से क्षुब्ध हो कर रानी चली गई। रानी ने मेरा त्याग कर के मेरे वचन का निर्वाह किया है। राजा को रानी का विरह, शूल के समान खटकने लगा । वह शोकातुर हो कर तड़पने लगा। पहले तो वह अपना ही दोष देख कर पश्चात्ताप करने लगा और भविष्य में शिकार नहीं खेलने का निश्चय कर के रानी को मना कर लाने का विचार किया । किन्तु बाद में विचार पलटा । उसने सोचा-रानी ने मेरे प्रेम का कुछ भी विचार नहीं किया । यदि वह मेरे लौटने तक रुक जाती, तो कौन-सा अनर्थ हो जाता। मैं उसे संतुष्ट कर देता । मेरे लौटने के पूर्व ही-मेरी अवज्ञा कर के--वह चली गई । अब मो उसे मनाने क्यों जाऊँ और क्यों अपने गौरव को घटाऊँ।' इस विपरीत विचारधारा ने उसे रोका । उसने निश्चय कर लिया कि वह विरह-वेदना सहन करेगा, किंतु रानी को मनाने नहीं जायगा । राजा ने अपना मन मोड़ लिया । मनोरञ्जन के लिए वह फिर शिकार खेलने जाने लागा।
सत्यवती
यमुना नदी के किनारे पर एक नाविक घूम रहा था। उसकी नौका यमुना तट से लगी पानी में डोल रही थी और वह इधर-उधर घूम कर प्रातःकालीन मनोरम समय का आनन्द ले रहा था । वह टहलता हुआ आगे बढ़ा और एक अशोक-वृक्ष की सघन छाया में बैठ कर शान्त सुरम्य प्रकृति की छटा का अवलोकन करने लगा। इतने में एक मनुष्य आकाश मार्ग से आया और एक सुन्दर बालक को उस अशोक वृक्ष की छाया में रख कर चला गया । नाविक यह दृश्य देख कर चकित रह गया। वह उठा और बालक के पास आया। वह एक सुन्दर कान्तिकाली बालिका थी । उस सुन्दर बच्ची को देख कर नाविक प्रसन्न हुआ। उसे विचार हुआ-'यह उच्च-कुलोत्पन्न बालिका है, परन्तु है किसकी ? ऐसी दुर्लभ्य सन्तान यहाँ क्यों ? यहाँ ला कर छोड़ने वाला वह मनुष्य कौन था ?' ऐसे कई प्रश्न उसके मन में उठे । बन्त में उसने सोचा-'यह किसी की भी हो मझे तो कन्या-रत्न के रूप में प्राप्त हुई है । अब मेरी पत्नी पर लगा 'बाँझ' का दोष दूर हो जायगा और हमारा घर बच्चे की बाललीला से रमणीय बन जाएगा । वह वालिका को गोद में ले कर सुखमय भविष्य के मनोरथ कर ही रहा था कि आकाश में से एक ध्वनि निकल कर उसके कानों में पड़ी;--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org