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________________ गांगेय का जन्म और गृह-त्याग शान्तनु राजा, गंगा को ले कर अपनी राजधानी में आये और सुखोपभोग में समय्य व्यतीत करने लगे। कालान्तर में गंगा रानी गर्भवती हुई और उसके एक सुन्दर पुत्र हुआ। राजा ने पुत्र का नाम, रानी के नाम के अनुसार गांगेय' रखा । राजा को मृगया का व्यसन था। उसके मन में आखेट पर जाने की लालसा उठी । रानी ने पहले भी राजा को मृगया से रोकने का प्रयल किया था, किन्तु राजा को रानी की हितशिक्षा रुचिका नहीं हुई। मोह के तीव्रतर उदय से राजा अपने को रोक नहीं सका । उसने आखेट पर जाने का निश्चय कर लिया और शिकारी का वेश धारण कर, शस्त्र-सज्ज हो कर रानी के पास आया। रानी ने राजा की वेशभूषा देख कर समझ लिया कि शिकार पर जाने की तैयारी हुई है। उसने पूछा-- "महाराज! आज यह तैयारी किस लिए हुई है ?" "प्रिये ! में आखेट के लिए जा रहा हूँ। बहुत दिनों के बाद आज मन नहीं माना, तो थोड़ी देर के लिए मनोरञ्जनार्थ जा रहा हूँ । शीघ्र ही लोट माऊँगा।" "नहीं आर्यपुत्र ! आप नरेन्द्र हैं। उत्तम आचार एवं श्रेष्ठ मर्यादा के स्थापक हैं। आप प्रजा के पालक और रक्षक हैं। आपके राज्यान्तर्गत वनों में रहने वाले पशुपक्षी भी आपकी प्रजा है। आपको इनका भी रक्षण करना चाहिए। इन निरपराधी जीवों को अपने व्यसन-पोषण के लिए मारना आपके लिए उचित नहीं है, अधर्म है। आपको अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिए। प्रजा आपका अनुकरण करती है। आपको अपने आदर्श में प्रजा को प्रभावित करना चाहिए। मेरी प्रार्थना है कि आप इस दुर्व्यसन से दूर ही रहें।" "शुभे! तुम्हारा कहना यथार्थ है । परन्तु आज तो मैं निश्चय कर के ही आय: हूँ। अवश्य जाऊँगा । मुझे रोकने की चेष्टा मत करो।" "प्राणनाथ ! आपको अपना वचन तो याद ही होगा-जो विवाह के पूर्व मुझे दिया था ? अतएव मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मृगया खेलना सर्वथा त्याग दें। वचन का पालन नहीं करने पर मुझे कदाचित् दूसरा निर्णय करना पड़े।" "हां, देवी ! मेरा वचन मुझे याद है । में उसका पालन करता आया हूँ। किन्तु इस प्रसंग पर तुम मुझे मत रोको। मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा"-कहता हुआ राजा चल दिया। राजा के व्यवहार से गंगा महारानी को आघात लगा। उसने गृह-त्याग कर पीहर जाने का निश्चय कर लिया और पुत्र को ले कर चल शिकली । निकार से लौटने पर अन्तःपुर सुना देख कर राजा को क्षोभ हुआ । दासियों से पूछने पर उसे मालूम हो चुका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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