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तीर्थङ्कर चरित्र
शरीर बार-बार धो कर सुशोभित रखने लगी । वह उठने-बैठने और सोने स्थान पर पानी छिड़कने लगी इस प्रकार देहभाव में आसक्त हो कर वह यथेच्छ विचरने लगी । सुकुमालिका साध्वी का यह अनाचार देख कर आर्या गोपालिकाजी ने उसे समझाते हुआ कहा
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“देवानुप्रिये ! तुम यह क्या कर रही हो ? हम निग्रंथधर्म की पालिका हैं । हमें अपना चारित्र निर्दोष रीति से पालना चाहिए । देह-भाव में आसक्त हो कर शरीर की शोभा बढ़ाना और हाथ-पांवादि अंगों को धोना तथा पानी छिड़क कर बैठना-सोना आदि क्रियाएँ हमारे लिए निषिद्ध है । इससे संयम खंडित होता है । अब तुम इस प्रवृत्ति को छोड़ो और आलोचना यावत् प्रायश्चित ले कर शुद्ध बनो ("
सुकुमालिका आर्या को गोपालकाजी की हितशिक्षा रुचिकर नहीं हुई । उसने गुरुणीजी की आज्ञा का अनादर किया और अपनी इच्छानुसार ही प्रवृति करने लगी । उसकी स्वच्छन्दता से अन्य साध्वियें भी उसको आलोचना करनी लगी और उसे उस दूषित प्रवृति से रोकने लगी । साध्वियों की अवहेलना एवं आलोचना से सुकुमालिका विचलित हो गई । उसके मन में विचार हुआ-- "मैं गृहस्थ थी, तब तो स्वतन्त्र थी और अपनी इच्छानुसार करती थी। मुझे कोई कुछ नहीं कह सकता था, परन्तु साध्वी हो कर तो मैं बन्धन में पड़ गई । अब ये सभी मेरी निन्दा करती हैं। अतएव अब इनके साथ रहना अच्छा नहीं है ।" इस प्रकार विचार कर वह गुरुणी के पास से निकल कर दूसरे उपाश्रय ' में चली गई और बहुत वर्षों तक शिथिलाचारयुक्त जीवन व्यतीत किया फिर अर्धमास की संलेखना की और अपने दोषों की आलोचनादि किये बिना हो काल कर के ईशानकल्प में देव-गणिकापने उत्पन्न हुई। उसकी आयुस्थिति ६ पत्योपय की थी ।
देवभव पूर्ण कर के सुकुमालिका का जीव इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में पंचाल जनपद के पाटनगर कम्पिपुर के द्रुपद नरेश की चुनी गनी की कुक्षि से पुपने उत्पन्न हुई । उसका नाम द्रौपदी' रखा गया। द्रुपद नरेश के घुष्टघुम्न कुमार युवराज था । अनुक्रम से द्रौपदी यौवनवय को प्राप्त हुई। जब वह द्रुपद नरेश के चरणवन्दन करने आई, तो नरेश ने इसे गोदी में बिठाया और उसके रूप-जीवन और अंगोपांग को विकसित देखा, तो उसके योग्य वर का चुनाव करने का विचार उत्पन्न हुआ। सोचविचार के पश्चात् राजा ने द्रौपदी से कहा-
"पुत्री ! तेरे योग्य वर का चुनाव करते हुए मेरे मन में सन्देह उत्पन्न होता है कि कदाचित् मेरा चुना हुआ वर तुझे सुखी कर सकेगा या नहीं ? इसलिए मैंने
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