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________________ सुकुमालिका के भव में ४०९ जिनदत्त की मांग सुन कर सागरदत्त ने कहा "देवानुप्रिय ! सुकुमालिका मेरी इकलौती पुत्री है और अत्यंत प्रिय है। में उसे एक क्षण के लिए भी दूर करना नहीं चाहता और न पराई करना चाहता हूँ । यदि आपका पुत्र मेरा घरजामाता रहना स्वीकार करे और आप देना चाहें, तो मैं घरजामाता बना कर उसके साथ अपनी सूपुत्री का लग्न कर सकता है। सागरदत्त की शर्त सुन कर जिनदत्त अपने घर आया और पुत्र को बुला कर सुकुमालिका के लिए सागरदत्त की शर्त सुनाई और पूछा-“बोल तू घर जामाता रहना चाहता है ?" सागर मौन रहा। जिनदत्त ने सागर के मौन को स्वीकृति रूप मान कर सम्बन्ध करना स्वीकार कर लिया और शुभ तिथि-नक्षत्रादि देख कर दिन निश्चित किया। फिर मगे-सम्बन्धियों को आमन्त्रित कर प्रीतिभोज दिया और सब के साथ, सुसंज्जित सागर को शिविका में बिठा कर, समारोहपूर्वक सागरदत्त के घर ले गया । सागरदत्त ने जिनदन आदि का बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी पुत्री का सागर के साथ लग्नविधि करने लगा। पाणिग्रहण की विधि करते समय सागर के साथ में सुकुमालिका का हाथ दिया, तो सागर को ऐसा स्पर्श लगा--मानो हाथ में उष्ण तलवार, छुरी अथवा आग रख दी गई हो। वह विवश हो कर चुपचाप उस दुखद स्पर्श को सहता रहा और लग्नविधि पूर्ण की। लग्न हो जाने के बाद सागरदत्त सेठ ने जिनदत्त आदि वरपक्ष को भोजन-पान और वस्त्रादि से सम्मानित कर बिदा कर दिया। वर-वधू शयनगृह में आये और शयन किया। इस समय भी सागर को सुकुमालिका का स्पर्श आग के समान असह्य एवं दुःखदायी लगा, किंतु वह मन मसोस कर सोया रहा। जब सुकमालिका निद्रा में लीन हो गई, तो सागर चपचाप उठ कर चला गया और अन्यत्र भिन्न शय्या में सो गया । कुछ देर बाद सुकुमालिका जगी, तो वह अपने को पतिविहिन अकेली जान कर चौंकी । वह उठी और सागर की शय्या थी वहां आ कर उसके पास सो गई । सागर को पुनः सुकुमालिका का असह्य स्पर्श सहना पड़ा । जब वह पुनः सो गई, तो उठ कर उस घर से ही निकल कर अपने घर चला गया। उसके जाने के कुछ समय बाद सूकूमालिका जाग्रत हो कर फिर पति को खोजने लगी। घर के द्वारा खुले देख कर वह समझ गई कि 'वह मुझे छोड़ कर चला गया है।' वह खिन्न चिन्तित और भग्नमनोरथ हो कर शोक-मग्न बैठी रही। प्रातःकाल उसकी माता ने हाथ-मुंह धुलाने के लिए दासी को भेजी । दासी ने सुकुमालिका को शोकाकुल देख कर पूछा-"इस हर्ष के समय तुम शोकमग्न क्यों हो?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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