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________________ .४०८ तीर्थकर चरित्र दुःखों को भोगती हुई काल कर के वह जलचर में * उत्पन्न हुई । वहां भी शस्त्रघात और दाहज्वर से मर कर सातवीं नरक में गई । वहाँ की तेतीस सामर प्रमाण आयु की महानतम वेदना भोग कर फिर जलचर में गई । वहाँ से फिर सातवीं नरक में उत्कृष्ट आयु तक तीव्रतम दुःख भोग कर फिर जलचर में गई । जलचर से मर कर दूसरी बार छठी नरक में गई । इस प्रकार प्रत्येक नरक में दो-दो वार जा कर और तिर्यंच-योनि के दुःख भोग कर वह असंज्ञी पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय में लाखों बार उत्पन्न हुई और छेदन-भेदन और जन्म-मरण के दुःख भोगती हुई चम्पानगरी के सागरदत्त सेठ की भद्रा भार्या की कुक्षि से पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई । वह अत्यन्त रूपवती सुकोमल सुन्दर और आकर्षक थी । उसका नाम 'सुकुमालिका' था । यौवन-वय प्राप्त होने पर वह उत्कृष्ट रूप-लावण्य से अत्यन्त शोभायमान लगने लगी। सकमालिका के भव में उसी नगर में जिनदत्त नाम का धनाढय सेठ था । उसका 'सागर' नामक पुत्र था । एकबार जिनदत्त सेठ सागरदत्त सेठ के भवन के निकट हो कर कहीं जा रहा था : उस समय सागरदत्त की पुत्री सुकुमालिका शृंगार कर के अपनी दासियों के साथ भवन की छत पर, सोने की गेंद खेल रही थी । जिनदत्त की दृष्टि सुकुमालिका पर पड़ी। वह सूकूमालिका का रूप-लावण्य और यौवन देख कर चकित रह गया। उसने बुला कर उस युवती का परिचय पूछा । परिचय जान कर जिनदत अपने घर आया और अपने मित्र-बन्धु सहित साग रदत्त के घर गया । साग रदत्त ने जिनदत्त आदि का आदर-सत्कार किया और आने का कारण पूछा । जिनदत्त ने सुकु मालिका की, अपने पुत्र सागर के लिए याचना करते हुए कहा ___ “आप यदि उचित समझें, तो अपनी सुपुत्री मेरे पुत्र को दीजिये । मैं अपनी पुत्रवधु बनाना चाहता हूँ। यदि आप स्वीकार करें, तो कहिये, मैं उसके प्रतिदान (शुल्क ) में आपको क्या दूं ?" यह ज्ञातासूत्र का विधान है। त्रि. श. पू. त्रि में छठी नरक से निकल कर चाण्डाल जाति में उत्पन्न होना, फिर सातवीं में जाना और वहां से म्लेच्छ जाति में उत्पन्न होना लिखा है, जो उचित प्रतीत नहीं लग । सातवीं से निकल कर तो मनुष्य होता ही नहीं है। Jain Education International www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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