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यादवों का स्वदेश -त्याग
की उपेक्षा क्यों कर रहे है ? इसे रोकते क्यों नहीं हैं ?"
सोमक की बात सुन कर अन धृ ष्टकुमार बोला ;
-- " ए सोमक ! तुझे लज्जा नहीं आती और बार-बार वही रोना रो रहा है । अपने दुष्ट जामाता के मरने से जरासंध को दुःख हुआ, तो हमें हमारे छह भाइयों के मरने का दुःख नहीं है क्या ? अब हम और हमारे ये भाई, तेरी ऐसी अन्यायपूर्ण बात सुनना नहीं चाहते । जा, चला जा यहाँ से ।"
तिरस्कृत सोमक रोषपूर्वक लौट गया ।
यादवों का स्वदेश - त्याग
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सोमक के प्रस्थान के पश्चात् समुद्रविजयजी ने विचार किया । उन्हें विश्वास हो गया कि अब जरासंध से भिड़ना ही पड़ेगा । दूसरे ही दिन उन्होंने अपने बन्धुओं और सम्बन्धियों की सभा बुलाई। उन्होंने कहा-
" जरासन्ध से युद्ध होना अनिवार्य हो गया है । उसकी सैन्य शक्ति विशाल है । वह त्रिखण्ड का स्वामी है । 'हम उससे लड़ कर किस प्रकार सफल हो सकेंगे, ' -- इस पर विचार करना है । उन्होंने अपने विश्वस्त भविष्यवेत्ता के समक्ष प्रश्न रखा । भविष्यवेत्ता से विचार करने के बाद कहा-
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" आपको कष्टों का सामना तो करना ही पड़ेगा, किन्तु विजय आपकी होगी । ये राम-कृष्ण युगलबन्धु, जरासन्ध को मार कर त्रिखण्ड के स्वामी होंगे। अभी आप अपने देश का त्याग कर पश्चिम समुद्रतट की ओर प्रयाण करें। आपके वहाँ पहुँचते ही आपके शत्रु- पक्ष का विनाश होने लगेगा। मार्ग में रानी सत्यभामा, जिस स्थान पर पुत्रयुगल को जन्म दे, वहीं आप नगर बसा कर रह जायें। आपकी श्री-समृद्धि बढ़ती जायगी ।"
भविष्यवेत्ता के वचनों पर विश्वास कर के सभी ने तदनुसार स्वदेश त्याग कर प्रस्थान करने का निश्चय किया। समुद्रविजयजी ने उद्घोषणा करवा कर प्रस्थान के समय की सूचना प्रसारित कर दी । मथुरा से ग्यारह कुल-कोटि यादव चल कर शौर्यपुर आये । राजा उग्रसेनजी भी साथ हो लिये । शौर्यपुर से सात कुलकोटि यादवों और सम्बन्धियों के साथ चले और विन्ध्यगिरि के मध्य में हो कर आगे बढ़ने लगे ।
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