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________________ तीर्थंकर चरित्र सोमक की बात सुन कर समुद्रविजयजी ने कहा ; " भोले भाई ! वसुदेव ने अपने छह पुत्र, क्रूर कैंस को दे कर जो भूल की, उसका भी मुझे दुःख है । अब में वैसी भूल नहीं करूँगा । राम और कृष्ण ने कोई अपराध नहीं किया । कंस उनके प्राणों का गाहक बन गया था और उन्हें मारना चाहता था । उन्हें मारने के लिए उसने कई षड्यन्त्र रचे थे । इसलिए अपने शत्रु को मार कर उन्होंने अपनी रक्षा ही की है । इसके सिवाय उन्हें अपने छह भाइयों के मारने का दण्ड भी कंस को देना ही था । छह बालकों की हत्या करने वाले राक्षस को मार डाला और अपनी रक्षा की, इसमें अपराध कौनसा हुआ ? जरासंध यदि न्याय करता है, तो सब से पहले उसका दामाद ही बाल-हत्या कर के हत्यारा बना था । उस हत्यारे के पाप का दण्ड उसे देना ही था । यदि वह कृष्ण की हत्या करने की कुचेष्टा नहीं करता, तो उसे वह नहीं मारता । अब तुम्हारा स्वामी मेरे इन प्राणप्रिय पुत्रों को माँग कर इन्हें मारना चाहता है । इतना दुर्बुद्धि है तुम्हारा राजा ? जाओ, तुम्हें रामकृष्ण नहीं मिल सकते ।" --" हे राजन् ! स्वामी की आज्ञा का पालन करना ही सेवक का कर्त्तव्य होता है। - इस में योग्यायोग्य और उचितानुचित देखने का काम, सेवक का नहीं होता । आपके छह बालक तो गये ही हैं । अब ये दो और चले जावेंगे, तो कमी क्या हो जायगी ? आपकी सारी विपदा दूर हो जावेगी और राज्य भी बच जायगा । दो लड़कों के पीछे सारे राज्य और समस्त परिवार को विपत्ति में डाल कर दुःखी होना, समझदारी नहीं है। एक बलवान और समर्थ के साथ शत्रुता करके आप बड़ी भारी भूल करोगे । कहाँ गजराज के समान सम्राट जरासंधजी और कहाँ एक भेड़ के समान आप ? आप उनकी शक्ति के सामने कैसे और कितनी देर ठहर सकेंगे ? थे । जब सोमक ने समुद्रविजयजी को भेड़ के कृष्ण, सोमक की बात सहन नहीं कर सके। अब तक वे मौन रह कर सुन रहे समान बताया, तो वे बोल उठे; -- " सोमक ! मेरे इन पूज्य पिताजी ने आज तक तेरे स्वामी के साथ सरलतापूर्वक स्नेह-सम्बन्ध बनाये रखा । इससे तुम्हारा स्वामी बड़ा और समर्थ नहीं हो गया । हम जरासंध को अपना स्वामी नहीं मानते, अपितु दूसरा अत्याचारी कंस ही मानते हैं, जा उसके अत्याचार का समर्थक और वर्द्धक बन रहा है । अब तू यहाँ से चला जा और तेरे स्वामी को जैसा तुझे ठीक लगे--कह दे ।” कृष्ण की बात सुन कर सोमक ने समुद्रविजयजी से कहा ; -- " हे दशार्ह राज ! तुम्हारा यह पुत्र कुलांगार लगता है । आप इसकी उद्दण्डता ३८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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