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तीर्थंङ्कर चरित्र
की चुनौती स्वीकार कर ली। उस समय हाथी उसी की ओर आ रहा था और नल निर्भयतापूर्वक हाथी की ओर बढ़ रहा था । गवाक्षों, खिड़कियों और छतों पर चढ़े हुए लोग. नल को हाथी की ओर जाते देख कर चिल्ला उठे;
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'अरे, ओ कूबड़े ! क्या अन्धा है, या मरना चाहता है, जो मृत्यु के सामने जा रहा है ? भाग, पीछे की ओर भाग, नहीं तो अभी कुचला जायगा ।"
नल निःसंकोच साहसपूर्वक हाथी की ओर बढ़ता रहा और निकट पहुँच कर, उसे भुलावा दे दे कर, कभी सूंड़ और कभी पूंछ की ओर छेड़ने लगा । जब हाथी, सूंड़ फैला कर नल को पकड़ने लगता, तो नल दूसरी ओर खिसक जाता । इस प्रकार चक्कर दे दे कर नल ने गजराज को थका दिया, खेदित कर दिया और फिर लपक कर उसकी पीठ पर चढ़ बैठा, फिर कुंभस्थल तथा कपोल पर मुष्ठि प्रहार कर उसे ढीला कर दिया नल का साहस देख कर लोग विस्मित हो गए। राजा, राजभवन की छत पर चढ़ कर यह दृश्य देख रहा था। हाथीवानों ने नल का पराक्रम देखा, तो वे भी चकित रह गए। एक हाथीवान ने निकट आ कर नल की ओर अंकुश उछाल दिया और हस्तिशाला की ओर हाथी को ले चलने का संकेत किया । नल से प्रेरित हाथी, अपने स्थान पर आ कर बंध गया । नल के पराक्रम से प्रसन्न हो करें नरेश ने अपने गले का हार उतार कर नल के गले में पहिना दिया । जनता ने कूबड़े का जयघोष से स्वागत किया । दधिपूर्ण नरेश ने जल की प्रशंसा करते हुए कहा-" हे कलाविद् ! तुम गजवशीकरण कला में पारंगत हो। तुमने मुझे और सारे नगर को संकट से उबार लिया। हम सब तुम्हारे आभारी हैं । लगता है कि तुम विशिष्ट व्यक्ति हो । कहों, गजसाधन कला के सिवाय और किन-किन कलाओं में तुम निपुण हो ?" - "महाराज ! मैं सूर्य्यपाक भोजन बना सकता हूँ ।"
सूर्य्यपाक का नाम सुन कर राजा चकित हुआ । उसने तुरंत हो सामग्री मँगवाई । नल ने सामग्री एकत्रित कर, उसके पात्र सूर्य्य के ताप में रखे और सौरी विद्या का स्मरण किया । उसी समय दिव्य भोजन तैयार हो गया । राजा ने अपने परिवार के साथ रुचिपूर्वक भोजन किया । यह भोजन श्रम से उत्पन्न थकावट, अशक्ति और दुर्बलता मिटा कर शक्ति, तुष्ठि एवं प्रसन्नता प्रदान करने वाला है । भोजन करने के बाद राजा को विचार हुआ कि 'सूर्य्यपाक तो नल नरेश ही बना सकते हैं और कोई इस विद्या को नहीं जानता ।' चिरकाल तक नल की सेवा में रहने के कारण दधिपूर्ण यह बात जानता या । दधिपर्ण ने नल से कहा,
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