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________________ ३४६ तीर्थङ्कर चरित्र भाषा जानता हूँ और आपका परिचय भी मुझे इस ज्ञान से ही हुआ है।" नल ने वन-लता पर कांपते हुए सर्प पर अपना उत्तरीय वस्त्र फेंका । सर्प, वस्त्र का किनारा पकड़ कर लिपट गया। नल ने अपने हाथ में रहे हुए वस्त्र के छोर को खिंच कर, सांप को बाहर निकाला और उठा कर निर्भय स्थान पर ले जा कर छोड़ने लगा। नल ज्यों ही सांप को वस्त्र पर से नीचे उतारने लगा कि सर्प ने नल के हाथ में डस लिया। नल के शरीर में जलन के साथ घबराहट व्या त हो गई । नल ने सर्प से कहा;-- आखिर तुम्हारा जाति-स्वभाव, दूध पिलाने वाले को विषाक्त करने का है न ? तुम ने उपकार का बदला अच्छा दिया।" नल के शरीर में विष का प्रभाव बढ़ने लगा । उसका वर्ण पलट गया, केश पीले और रुक्ष हो गए, होंठ बढ़ गए, कमर झुक कर कूबड़ निकल आई, हाथ-पाँव दुर्बल और पेट मोटा हो गया । उस का सारा शरीर बीभत्स हो गया । नल अपना भयानक रूप देख कर सोचने लगा-"इस जीवन से तो मृत्यु ही भली ।" उसने सोचा--'अब संयम स्वीकार कर, शेष भव को सफल करना ही श्रेयस्कर होगा।' नब सोच ही रहा था कि सर्प ने अपना रूप पलटा और दिव्य अलंकारों तथा प्रभाव से देदीप्यमान देव रूप धारण कर नल से कहने लगा-- "वत्स ! चिन्ता मत कर ! मैं तेरा पिता निषध हूँ। मैं संयम का पालन कर के देव हुआ । जब मैने अपने ज्ञान में तुझे इस दशा में देखा, तो तेरे उपकार के लिए यहाँ आया और सर्प का रूप बना कर तुझे उसा । अभी तेरा प्रच्छन्न रहना ही हितकारी है। जिन राजाओं को जीत कर तुने अपने आधीन बनाया था, वे सब तुझसे शत्रता रखते हैं । तुझे मूल रूप में देख कर, वे उपद्रव करते । उनके उपद्रव से बचाने के लिए मैने सर्प के रूप में डस कर विकृत बना दिया। अब कोई भी तुझे नहीं पहिचान सकेगा । तू संसारत्याग कर निग्रंथ बनने का विचार कर रहा है, परंतु तुझ पर उदय-भाव प्रबल है । तु फिर वही राज्याधिकार पा कर चिरकाल तक भोग करेगा । जब दीक्षा का शुभ समय आएगा, तब मैं तुझे बतला दूंगा। अभी तु अपने अशुभोदय का शेष काल पूरा कर ले। में तुझे यह श्रीफल और पेटिका देता हूँ। इन्हें यत्नपूर्वक रखना । जब तू मूलरूप में आना चाहे, तब इस श्रीफल को फोड़ना, इसमें से निर्दोष देवदुष्य निकलेंगे और पेटिका में से दिव्य आभूषण प्राप्त होंगे। इनको धारण करते ही तेरा मूल रूप प्रकट होगा और तु देव-तुल्य दिखाई देने लगेगा।" -"पिताजी ! इस कुल-कलंक पर आपका इतना स्नेह है कि अपना दिव्य-सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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