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नल की विडम्बना और देव-सहाय्य
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पर, वाहन में बैठ कर राजभवन में आये । राजा ने हरिमित्र पर प्रसन्न हो कर पांच सौ गाँव जागीर में दिये और कहा-“यदि तू नल राजा को खोज कर लावेगा तो तुझे आधा राज्य दिया जायगा।" राजा ने दमयंती के आगमन की प्रसन्नता में उत्सव मनाया । सारे नगर में एक सप्ताह तक उत्सव हुआ। विदर्भ नरेश, नल की खोज में पूरी शक्ति के साथ प्रयत्न करने लगे।
नल की विडम्बना और देव-सहाय्य
दमयंती को सोती हुई छोड़ कर जाने के बाद नल इधर-उधर वन में भटकता रहा। ख ने को वन के फल-फूलादि के सिवाय और क्या मिल सकता था ? थकने पर कहीं वक्ष के नीचे पत्थर पर, हाथ का सिरहाना कर के सो रहते । सर्दी-गर्मी और वर्षा के कष्ट तो सहन करने ही पड़ते थे । वन के भयंकर जीवों से तो वे नहीं डरते थे, किंतु अचानक आक्रमण की संभावना से सावधान तो रहना ही पड़ता था। इस प्रकार दिन और महिने ही नहीं, वर्ष बीत गए । एक बार वे वन में भटक ही रहे थे कि उन्हें कुछ दूर धूओं उठता हुआ दिखाई दिया । बढ़ते हुए उस धूम-समूह ने आकाश को आच्छादित कर लिया, फिर उसी स्थान पर अग्नि-ज्वाला प्रकट हुई और विकराल बन गई । जलते हए बांसों की गाँठों के स्फोट, पशुओं के आर्तनाद और पक्षियों के कोलाहल से सारा वन-प्रदेश भयाक्रान्त हो गया। इतने में एक तीव्र चित्कार के साथ नल को ये शब्द सुनाई दिये ;
___ "हे इक्ष्वाकु-वंशी क्षत्रियोत्तम नल नरेश ! मेरी रक्षा करो। आप परोपकारी हैं, दयाल हैं, मुझे बचाइये। मुझे बचाने में आपका भी हित है। शीघ्रता करें । मैं जल
इस आर्त पुकार को सुन कर नल शीघ्रता से शब्दानुसार गहन लताकुंज में आया। उसने देखा-एक बड़ा भुजंग "बचाओ, रक्षा करो"-बोल रहा है । नल आश्चर्यान्वित हो कर पूछने लगा--
“सर्पराज ! तुम मुझे और मेरे वंश को कैसे जान गए और मनुष्य की भाषा में किस प्रकार बोलते हो?"
--"मैं पूर्वभव में मनुष्य था। मुझे अवधिज्ञान है । इस से मैं पूर्वभव की मानवी
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