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दमयंती के प्रभाव से वर्षा थमी और तापस जैन बने
" में कोशला नगरी के नल नरेश के अनुज कुबर का पुत्र हूँ। में विवाह कर के घर आ रहा था कि मार्ग में इन आचार्य के दर्शन हुए धर्मोपदेश सुना। मैने अपनी शेष आयु के वषय में पूछा, तो आचार्यश्री ने केवल 'पाँच दिन ' बतलाये । मृत्यु को निकट आया जान कर में भयभीत हुआ । आचार्य ने कहा--" भय छोड़ कर धर्माचरण करोगे. तो सुखी बनोगे ।" मैने प्रव्रज्या ग्रहण की और तपस्या धारण कर धर्मध्यान में लीन रहने लगा | मेरा संसार-लक्षी चिन्तन रुक गया और आत्म-लक्षी विचार चलते रहे । यहाँ आने के बाद मेरे घाती - कर्म नष्ट हो गए और केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ।"
इसके बाद ही केवली भगवान् का योग निरोध हुआ और भवोपग्राही कर्म नष्ट होकर सिद्ध-गति को प्राप्त हुए ।
कुलपति ने यशोभद्र आचार्य से प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय दमयंती ने भी भावोल्लास में दीक्षित होने की प्रार्थना की। आचार्यश्री ने ज्ञानोपयोग से भविष्य जान कर कहा - " भद्रे ! अभी तेरे प्रत्याख्यानावरण- चतुष्क का उदय शेष है । तू पति के साथ दमोहनीय के उदय को सफल करेगी, इसलिए प्रव्रज्या के योग्य नहीं है ।"
आचार्यश्री ने विहार किया। दमयंती व्रत-नियम और विविध प्रकार के तप करती हुई सात वर्ष पर्यन्त उस गुफा में रही ।
एक बार किसी पथिक ने दमयंती से कहा - " मैने तुम्हारे पति नल को देखा हैं । " ये शब्द सुनते ही दमयंती को रोमांच हुआ । वह पति के विशेष समाचार जानने की उत्सुकता से पथिक की ओर बढ़ी। किंतु वह गुफा के बाहर आ कर लुप्त हो चुका था । दमयंती उसकी खोज करती रही, परन्तु वह नहीं मिला। इस भटकन में वह गुफा में आने का मार्ग भी भूल गई । वह गुफा की खोज में भटक रही थी कि उसके सामने एक राक्षसी प्रकट हुई और -- " खाऊँ खाऊं" करती हुई उसकी ओर हाथ फैलाये बढ़ने लगी । दमयंती पहले तो डरी, किंतु शीघ्र ही सावधान हो कर उसने कहा--"यदि में सती हूँ, श्रमणोपासिका हूँ, और निर्दोष चरित्र वाली हूँ, तो हे राक्षसी ! तेरा साहस नष्ट हो जाय ।" इतना कहना था कि राक्षसी हताश हो कर लौट गई। उसने समझ लिया कि यह कोई सामान्य स्त्री नहीं है । यह अपना प्रभावशाली व्यक्तित्व रखती है । दमयंती . का यह उपसर्ग भी दूर हुआ ।
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