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दमयंती को बन में ही छोड़ दिया
राजच्युत विपदयग्रस्त नल नरेश के स्वाभिमान ने उन्हें ससुराल जाने से रोका ! उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वे इस दशा में वहाँ नहीं जावेंगे । अब उनके सामने दमयंती की सुख-सुविधा का प्रश्न था । एक ही दिन के कष्ट में दमयंती की दशा, मुरझाई हुई चम्पकलता-सी हो गई थी। वह विदेश के कष्ट कैसे भोग सकेगी ? अब जीवनयापन का आधार मजदूरी, नौकरी या दासवृत्ति के सिवाय और है ही क्या ? यह कोमलांगी कैसे सहेगी ये दुःख ? विचार के अन्त में नल ने दमयंती को वहीं छोड़ कर एकाकी चले जाने का निश्चय किया। उसने सोचा----" दमयंती को मेरे वियोग से अपार दुःख होगा, किंतु वह कुछ देर बाद संभल जायगी और पितगृह या ससुरगृह-जहाँ चाहे चली जायगी । उसको सुरक्षा की तो कोई चिन्ता नहीं है । उसका शील और धर्म उसकी रक्षा करेगा और वह यथास्थान पहुँच कर सुखी हो जायगी ।" यद्यपि नल के धैर्य का बांध टूट रहा था, तथापि विवश था । उसके समक्ष और कोई चारा ही नहीं था । उसने साहस के साथ धैर्य धारण किया और छुरी से अपनी अंगुली चोर कर अपने रक्त ये दमयंती के वस्त्र पर लिखा; ---
"प्रिय जीवन-संगिनी ! तुम मेरी प्राणाधार हो । मैं अपने हृदय को बरबस पत्थर बना कर तुमसे पृथक् हो रहा हूँ। इस भयानक बन में तुम्हें अकेली निराधार छोड़ कर जा रहा हूँ--भावी असह्य यातनाओं से बचाने के लिए । मेरा भविष्य अन्धकारमय है दुःखपूर्ण है और अनेक प्रकार के विघ्नों से भरपूर है । तुम इन कष्टों को सहन नहीं कर सकोगी। मैं अपने दुष्कृत्य का फल स्वयं ही भोगंगा । यदि भवितव्यता अनुकूल हुई, यो फिर कभी तुमसे मिलूंगा। तुम संतोष धारण करके अपने शरीर और मन को स्वन्य रखना । जिस भवितव्यता ने वियोग का असह्य दुःख दिया, वही संयोग का परम सुख भो देगी। इस निकट के वृक्ष की दिशा में जो मागे जाता है, वह विदर्भ की ओर जाता है और उसके बाई ओर का मार्ग कोशल की ओर । जहाँ तुम्हारी इच्छा हा, चली जाना और सुखपूर्वक रहना। आश्रित हो कर रहना मुझे अच्छा नहीं लगता, इसीलिए में जा रहा हूँ। मुझे क्षमा कर दो देवी !"
मनुष्य जीवन में कभी ऐसा समय भी आता है, जब भावनाओं को दबा कर अनिच्छनीय कार्य करना पड़ता है। हृदय में उठते हुए वेगमय गुबार को दबाता हुआ और अश्रुपात करता हुआ, गल दमयंती को छोड़ कर चल दिया। वह आंखें पोंछ कर पीछे मुड़-मुढ़ कर पत्नी को कातर-दृष्टि से देखता जाता था। जब तक वह दिखाई दी, मुड़
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