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नल-दमयंती का वियोग
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करता हुआ नल और उसके पीछे दमयन्ती बहुत दूर निकल गए । इधर एक दूसरा चोरदल इनका रथ उड़ा कर ले गया। दुर्भाग्य का उदय वृद्धिंगत था । विपत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। नल नरेश, अब अनाथ स्त्री-पुरुष की भाँति दमयन्ती का हाथ पकड़ कर वन में भटकने लगे । कोमलांगी दमयन्ती के कोमल चरण, नग्न पृथ्वी का प्रथम बार म्पर्श सहन नहीं कर सके । दो चरण चली भी नहीं थी कि रक्त की बूंदे निकल आई। वह भी वीरांगना थी । कष्ट की उपेक्षा करती हुई पति के साथ चलने लगी। नल, दमयन्ती के दुःख को जानता था । उसने देखा कि दमयन्ती के चरण-चिन्ह रक्त-रंजित हो रहे हैं। उसका हृदय आर्द्र हो गया । उसने दमयंती का पट्टबन्ध (जो पटरानी का सूचक था) फाड़ कर दमयन्ती के चरणों में बाँधा । थोड़ी दूर चल कर दमयन्ती थक गई, तो एक वृक्ष के नीचे बिठा कर नल अपने उत्तरीय वस्त्र से पंखे के समान वायु संचालन करने लगा। पलास-पत्र में पानी ला कर दमयन्ती की प्यास बुझाने लगा । दमयन्ती कष्ट से कातर हो कर बोली-"नाथ ! अब यह अटवी कितनी शेष रही है ?"
-“देवी ! सौ योजन अटवी में से हम अभी केवल पाँच योजन ही आये हैं। अभी तो ६५ योजन शेष रही है । अब धीरज रख कर सहन करने से ही हम पार पहुँच सकेंगे।"
. दम्पति चलते रहे । सूर्यास्त का समय होने लगा । नल ने अशोक वृक्ष के पल्लव एकत्रित किये और उनके कठोर डंठल तोड़ कर शय्या के समान बिछाया और दमयंती को शयन करने का आग्रह करते हुए कहा--"प्रिये ! सो जाओ। मैं अन्तःपुर-रक्षक के समान तुम्हारी रक्षा करूँगा।" नल ने उस पल्लव-शय्या पर अपना उत्तरीय वस्त्र बिछाया । दमयंती अहंत भगवान् को नमस्कार कर, परमेष्ठि का ध्यान करती हुई सो गई।
___ नल चिन्ता-मग्न हुआ । अपनी दशा और गमन-लक्ष्य पर विचार करता हुआ वह सोचने लगा;
___“जो पुरुष, ससुराल का आश्रय लेता है, उसका प्रभाव नष्ट हो जाता है। वह अधम पुरुष है । सम्पन्न अवस्था में, ससुराल के आग्रहपूर्ण आमन्त्रण पर, कुछ दिनों के लिये जाना तो शोभाजनक है, किंतु विपन्न अवस्था में दरिद्र बन कर दीर्घकाल के आश्रय के लिए जाना तो नितान्त अनुचित है। मुझे अपनी हीनतम अवस्था में वहां नहीं जाना चाहिए । लोग मेरी और अंगुली उठा कर हीन-दृष्टि से देखेंगे और कहेंगे----"ये पक्के खिलाड़ी हैं, जो राज्य गँवा कर, अब ससुराल की शरण में पड़े हैं।" मैं ऐसा अपमान कैसे सहन कर सकूँगा ?"
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