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दमयंती का दुःसह प्रभात
मुड़ कर देखता रहा । कुछ दूर निकल जाने पर उसे विचार हुआ-- रात का समय है । यदि कोई सिंहव्याघ्र आदि हिंसक पशु उसे अपना भक्ष बना ले, तो ?" वह लोटा और ऐसे स्थान पर छुप पर बैठा - जहाँ से सोती हुई प्रिया दिखाई दे । दमयंती को भूमि पर पड़ो देख कर नल का भावावेग उभरा; -- "हा, देव ! यह महिला रत्न, जिसे सूर्य की किरण भी स्पर्श नहीं कर सकती थी, जिसने कभी भूमि पर पाँव नहीं रखा था, जिसकी सेवा में अनेक दास-दासियाँ सदैव उपस्थित रहती थी, वह कोशल देश की महारानी आज अनाथ दशा में एक दरिद्रतम स्त्री के समान, भूमि पर पड़ी है । हा, नल ! तू कितना दुर्भागी, पापी और अधम है । तेरे दुराचरण और दुव्यर्सन के कारण ही यह राजदुलारी आज भिखारिणी से भी बुरी दशा में पड़ी है ।" वह बैठा हुआ रोता रहा और सोती हुई प्रियतमा को देखता रहा । प्रातःकाल दमयंती को जाग्रत होती देख कर वह उठा और चल दिया ।
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दमयंती का दुःसह प्रभात
उस समय दमयंती अर्द्ध-निद्रित अवस्था में एक स्वप्न देख रही थी । उसने देखाएक सघन एवं पुष्प फल से समृद्ध आम्रवृक्ष पर चढ़ी हुई वह मधुर फल खा रही है । इतने में ही एक मस्त हाथी आया और सूंड से वृक्ष को उखाड़ फेंका । वृक्ष के उखड़ते ही दमयंती गिर कर भूमि पर पड़ी। भय के मारे उसकी नींद उचट गई । उसका हृदय धड़क रहा था । प्रातःकाल का शीतल एवं सुगन्धिस समीर भी उसे ठंडक नहीं दे सका । वह पसीने से सराबोर हो गई। उसने आँखे खोल कर देखा - स्वामी समीप नहीं है । तत्काल ही उसके हृदय में धसका हुआ । --' 'कहाँ गए ? किधर गए ? क्यों गए ?' अपने ही मन से प्रश्न किया। वह किससे पूछे --उस निर्जन भयानक बन में ? कौन उत्तर दे उसे ? मन ने ही समाधान किया -- ' प्रातः काल का समय है, शौच गए होंगे। हाथ मुँह धोने या मेरे लिए पानी लेने गये होंगे । अभी आजाएँगे ।' फिर शंका हुई--" किसी किन्नरी ने तो उनका हरण नहीं कर लिया ?" मन शांति चाहता है ।
यदि कोई दूसरा संतोष देने वाला नहीं हो, तो स्वयं ही अपना मन समझा कर क्षणिक शांति प्राप्त करता है । परंतु वह मनःकल्पित शांति कबतक रहती है ? थोड़ी ही देर में वे
धुंए के
बादल हट जाते हैं और दुःख दुगुने वेग से उमड़
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