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________________ नल-दमयंती आख्यान — कुबेर द्वारा कृष्णराज कुमार को यह सम्बन्ध खर गया । वह तत्काल आसन से उठ कर खड़ा हुआ और बोला, -- 'दमयंती ने भूल की है । ओ मूर्ख नल ! उतार यह वरमाला । तू इसके योग्य नहीं हैं । यह सुन्दरी मेरे लिये है । में इसको अपनी पत्नी बनाऊँगा । तू निकल जा यहाँ से । यदि तुझे अपनी शक्ति का घमण्ड है, तो उठ और अपने शस्त्र ले कर चल रणभूमि में । मुझे पर विजय पाये बिना तू दमयंती को प्राप्त नहीं कर सकेगा ।" कृष्णराज की गर्वोक्ति सुन कर नल हँसता हुआ बोला- " दुष्ट ! तू ईर्षा की आग में क्यों जल रहा है ? दमयंती अपना वर चुनने में स्वतन्त्र थी । अब वह मेरी हुई और मेरी ही रहेगी । यदि तरी मति भ्रष्ट हो गई और तुझे अपने बल का घमण्ड है, तो मैं तुझे शिक्षा देने के लिए तत्पर हूँ । चल और भुगत अपनी दुष्टता का फल ।" दोनों ओर की सेनाएँ शस्त्र सज्ज हो कर आमने-सामने खड़ी हो गई । इस विषम परिस्थिति को देख कर दमयंती चिन्ताग्रस्त हो गई । वह सोचने लगी; मेरे लिए युद्ध की तैयारी हो रही है । मैं कितनी दुर्भागिनी हूँ ! मेरे ही कारण यह रक्तपात होने वाला । हे देव ! हे शान्ति एवं संतोषदायिनी शासनदेवी ! बचाओ - - इस मानव-संहारक युद्ध मे । सन्मति दो इन ईर्षालु जीवों को । अपनी पवित्र शांति-वर्षा से ईर्षा और युद्ध की आग को बुझा दो । हृदयेश को विजय प्राप्त हो ।" इस प्रकार शुभ कामना करती हुई दमयंती ने नमस्कार महामन्त्र का स्मरण किया और मन में दृढ़ विश्वास से संकल्प किया--" में जिनेश्वर भगवंत की उपासिका हूँ । मेरे रोम-रोम में धर्मं बसा हुआ है । जिनेश्वर भगवन्त स्वयं अपरिमित शान्ति के महासागर हैं। धर्म के प्रभाव से यह उपद्रव शीघ्र ही शांत हो जाय " -- इस प्रकार भावपूर्वक बोलती हुई दमयंती ने अंजली भर कर दोनों सेनाओं पर जल छिड़का । उस जल के कुछ छिटे कृष्णराज के मस्तक पर भी पड़े । शुद्ध हृदय की पवित्र एवं उत्कट भावनायुक्त जल के छिटे लगते ही कृष्णराज ने सिर ऊँचा किया। उसने गवाक्ष में जलझारी लिय हुए शांत एवं पवित्र भावना वाली राजकुमारी दमयंती को देखा । उसे लगा जैसे कोई देवी अपने हाथ के संकेत से शांति और पवित्रता का सन्देश दे रही हो । उसकी ईर्षा की आग बुझ गई । वह शांत हो गया और शस्त्र झुका कर नलकुमार का सम्मान करने लगा । उसके शांत मन में नलकुमार एक भाग्यशाली उत्तम पुरुष लगा । वह तत्काल विनम्र हो कर कहने लगा; -- Jain Education International ३२३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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