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________________ ३२२ तीर्थङ्कर चरित्र अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। फिर वह नगर में भ्रमण कर राजभवन के पास आया और राज-दम्पत्ति को अपनी पीठ पर से उतार कर हस्तीशाला में चला गया। गर्भकाल पूर्ण होने पर शभ घड़ी में रानी के एक पुत्री का जन्म हआ। कन्या शुभ लक्षणवाली, सुन्दर एवं मनोरम थी। उसके ललाट पर जन्म से सहज ही तिलक शोभायमान हो रहा था। गर्भ में आते ही माता ने स्वप्न में, दावानल से भयभीत हो कर राजभवन में आये हुए श्वेत दन्ती (हाथी) को देखा था। इस स्वप्न के आधार पर पुत्री का नाम 'दवदन्तो' रखा, जिसे बाद में 'दमयंती' भी कहने लगे । ज्यों-ज्यों कन्या बढ़ती गई, त्यों-त्यों उसका रूप-सौन्दर्य और आभा विकसित होती गई। वह अपनी सौतेली माताओं, बहिन-बन्धुओं और राजभवन के लोगों में सर्वप्रिय बन गई । उसके जन्म के पश्चात् राजश्री में भी वृद्धि हुई और राजा का प्रभाव भी बढ़ गया। योग्य-वय में दमयंती ने स्त्री-योग्य कलाओं का अभ्यास किया। उसका धर्मशास्त्र का अभ्यास भी असाधारण था। वह कर्मप्रकृति, नवतत्त्व और स्याद्वाद आदि विषयों की असाधारण ज्ञाता थी। पुत्री के तत्त्व-विवेचन ने पिता को भी धर्म के अभिमुख कर दिया। दमयंती को यौवन-वय प्राप्त होने पर, राजा उसके योग्य वर की खोज में लगा, किंतु दमयंती के योग्य कोई वर दिखाई नहीं दिया। दमयंती की वय अठारह वर्ष की हुई, तब नरेश ने सोचा-'पुत्री स्वयं विचक्षण है। वह अपने योग्य वर का चयन स्वयं कर ले, इसलिए स्वयंवर का आयोजन करना ही उत्तम है। उसने योग्य दूतों को विभिन्न राज्यों में भेजा और स्वयंवर में उपस्थित होने के लिए राजाओं और युवराजों को आमन्त्रित किया ! निर्धारित समय पर सभी आमन्त्रित राजा, अपने राजकुमारों सहित कुंडिनपुर आये। कोशल नरेश निषध भी अपने पुत्र नल और कुबर सहित आ पहुँचे । कुंडिनपुर के अधिपति महाराज भीमरथ ने सब का उचित स्वागत-सत्कार किया। स्वयंवर मण्डप तैयार करवाया और आगत नरेशों और राजकुमारों के योग्य आसनों की व्यवस्था की। निश्चित समय पर सभी प्रत्याशी बड़ी सज-धज के साथ आये और अपने-अपने आसन पर बैठे। राजकुमारी दमयंती अपनी सखियों, दासियों और चतुर प्रतिहारी के साथ एक देवी के समान शोभायमान होती हुई मण्डप में प्रविष्ट हुई। भीमरथ नरेश के निर्देशानुसार प्रतिहारी, प्रत्येक राजा और राजकुमार का परिचय एवं विशेषता बताती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। जब वह निषध नरेश के सुपुत्र नल के समीप आई, तो उसे देखते ही, पूर्वभव के सम्बन्ध से प्रेरित हो कर युवराज नलकुमार के गले में वरमाला पहिना कर, पति रूप में वरण कर लिया । सभा ने राजकुमारी द्वारा हुए चुनाव एवं वरण की प्रशंसा की। किंतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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