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तीर्थङ्कर चरित्र
हो, तो मुझे क्षमा करें। मुझे लगता है कि मुझे संतप्त करने के लिए ही आपने हृदयेश को अदृश्य किये हैं । मुझ पर दया करो -- देव !
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कुबेर ने हँस कर वसुदेव से कहा- 'यह कुबेरकान्ता मुद्रिका अंगुली में से निकाल दो ।" अंगूठी निकालते ही कुमारी को वसुदेव दिखाई दिये । कुमारी की उदासी विलीन हो गई। उसने हर्षावेग युक्त वसुदेवजी के निकट आ कर माला पहिनाई । कुबेर की आज्ञा से देवों ने दुंदभी-नाद किया । अप्सराएं मंगल गीत गाने लगी । दिव्य वृष्टि हुई और वसुदेव के साथ राजकुमारी कनकवती का लग्न हो गया ।
नल-दमयंती आख्यान - कुबेर द्वारा
उधर से कुछ सन्त महात्मा आ
विवाहोपरान्त वसुदेव ने लोकपाल कुबेर से पूछा -- “ देवलोक छोड़ कर यहाँ आने का आपका प्रयोजन क्या है ?" देव ने कहा; - "इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, अष्टापद पर्वत के निकट 'संगर नाम का एक नगर था । वहाँ मम्मण ननेश था और वीरमती रानी थी । धर्मविहीन और मलिन मानस राजा और रानी किसी दिन आखेट के लिए वन में गए। रहे थे । उनका शरीर मेलयुक्त था । राजा की दृष्टि एक मुनि पर पड़ी । मलिन मात्र मुनि को देखते ही राजा को विचार हुआ - ' यह साधु मेरे लिए अपशकुन हैं । बाज मुझे मृगया में सफलता नहीं मिलेगी ।' राजा ने कुपित हो कर साधु को बन्दी बना लिया । आखेट कर के लौटने पर राजा को बन्दी मुनि का स्मरण हो आया । उसने बारह घंटे के बाद उन्हें मुक्त किया और निकट बुला कर मुनि का परिचय पूछा। मुनिवर ने पाप का दुःखद फल और धर्म का महाफल बताते हुए राजदम्पति को धर्मोपदेश दिया और अभयदान का महत्व समझाया । राजा-रानी पर मुनिराज के धर्मोपदेश का कुछ प्रभाव पड़ा। उन्होंने मुनिवर को आहारपानी प्रतिलाभित किया और एक उत्तम स्थान पर ठहरने का निवेदन किया । फिर तो राजा प्रतिदिन सन्त संगति करता रहा और यथावसर मुनिवर को प्रतिलाभित भी करता रहा । राज दम्पति ने धर्म-रंग में रंग कर श्रावक व्रत धारण किये । मुनिराज विहार कर गए । राजा-रानी धर्म का रुचिपूर्वक पालन करने लगे । धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु पा कर वे देवलोक में दम्पति रूप से उत्पन्न हुए
मम्मण राजा का जीव देव-भव पूर्ण कर के इसी भरतक्षेत्र के पोहनपुर नगर में 'धन्य ' नाम का अहीर-पुत्र हुआ । वह भाग्यशाली था । वीरमती रानी का जीव भी
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