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________________ वसुदेव पर कुबेर की कृपा x कनकवती से लग्न वसुदेव लौटे और अदृश्य रह कर ही बाहर निकले । कुबेर को राजकुमारी का अभिप्राय सुनाने लगे । कुबेर ने उन्हें रोक कर कहा- " 'मैं सब समझ गया हूँ । वास्तव में तुम उत्तम पुरुष हो । तुमने निर्दोष भाव से अपने कर्त्तव्य का पालन किया । तुम्हारे सरल एवं निष्कपट भाव से प्रसन्न हूँ ।" देव ने वसुदेवजी पर तुष्ट हो कर उन्हें 'सुरेन्द्रप्रिय' गन्ध से सुवासित ऐसे दो देवदृष्य (वस्त्र), 'सूरप्रभ' नामक सिरोग्न (मुकुट) 'जलगर्भ' नामक कुण्डलजोड़ी, 'शशिमयूख' नामक दो केयूर ( भुजबन्ध ) 'अर्धशारदा' नाम की नक्षत्रमाला ( २७ मोतियों का हार), सुदर्शन मणि से जड़ित दो कड़े, 'स्मरदारुण' नामक कटिसूत्र, दिव्य पुष्पमालाएँ और दिव्य विलेपन दिये। उन सभी आभूषणों को धारण कर के वसुदेवजी, दूसरे कुबेर दिखाई देने लगे । वसुदेव का ऐसा दिव्यरूप देख कर राजा और सभी लोग मुग्ध हुए । राजा हरिश्चन्द्र ने, स्वयंवर - सभा में पधारने की देवराज कुबेर से प्रार्थना की । कुबेर अपने विमान सहित स्वयंवर स्थल पर आये । वे अपनी देवांगनाओं के साथ सिंहासन पर बैठे थे । उनके समीप ही वसुदेव बैठे थे । सभा में बहुत-से राजा अपने-अपने सिंहासन पर बैठे थे । कुबेर ने अर्जुन -स्वर्ण से बनी हुई अपनी नामांकित मुद्रिका वसुदेव को दी, जिसे पहनते ही दूसरों के लिए वे कुबेर की ही मूर्ति के समान दिखाई देने लगे । राजकुमारी स्वयंवर - मण्डप में आई । उसने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । वह लक्ष्मी देवी के समान सुसज्ज थी । अनेक सखियों, दासियों और धात्रीमाता से घिरी हुई और हाथ में माला लिए हुए वह आगत राजाओं और राजकुमारों का परिचय पाती हुई आगे बढ़ने लगी । उसने सभी राजाओं और राजकुमारों को देख लिया, किंतु वसुदेव दिखाई नहीं दिये । वह उदास हो कर स्तब्धतापूर्वक खड़ी रही । उसने जब किसी को भी वरण नहीं किया, तो सभी प्रत्याशी विचार करने लगे- ---' क्या हम सब अयोग्य हैं ? हम में से कोई भी इसको नहीं भाया ? क्या यह आयोजन व्यर्थ रहेगा और यह कुमारी अविवाहित ही रह जायगी ?' इस प्रकार के संकल्प-विकल्प उनके मन में उठने लग । कुमारी सोचती थी--" हृदयेश कहां छुप गए ? यहाँ क्यों नहीं आए ? क्या मेरी समस्त आशाएं निष्फल जायगी ? हा, मेरा हृदय क्यों नहीं फटता ? मृत्यु क्यों नहीं आती ?" इस प्रकार निराशापूर्वक चिन्तन करते उसकी दृष्टि लोकपाल कुबर पर पड़ी। उसने कुबेर को वन्दना की और विनती करने लगी; ;-- हा, देव ! मैं आपकी पूर्वभव की प्रिया हूँ । आपने यदि मेरे साथ यह छल किया Jain Education International ३१६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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