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.' तीर्थकर चरित्र ...
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वसुदेवजी ने अपने मन्त्रबल से उस स्त्री के कामण छुड़ा दिये। वसुदेव की इस सफलता से प्रभावित हो कर जितशत्रु राजा ने अपनी बहिन केतुमति का वसुदेव से लग्न कर दिया।
इस घटना के समाचार सुन कर जरासंध के दूत ने जितशत्रु राजा से कहा- "रानी को सन्यासी के प्रभाव से मुक्त कराने वाले महानुभाव से, महाराजा जरासंधजी मिलना चाहते हैं । इसलिए इन्हें उनकी सेवा में भेजें।" राजा ने वसुदेवजी को रथारूढ़ कर भेजा। वहां पहुँचते ही नगर-रक्षक ने उन्हें बन्दी बना लिया। उन्होंने कारण बताया 'किसी ज्ञानी ने उन्हें कहा था कि-"तुम्हारी बहिन नन्दिसेना को सन्यासी के कामण से मुक्त करने वाले पुरुष का पुत्र ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।" इस भविष्यवाणी का सम्बन्ध तुम से है । तुम्हारा पुत्र महाराज का घातक बनेगा। इसलिए हम तुम को ही समाप्त कर दें कि जिससे महाराज का वह शत्रु उत्पन्न ही नहीं हो ।" वे लोग वसुदेवजी को वध-स्थल पर ले गए। वहाँ मारक लोग तैयार ही थे।
उस समय गन्धसमृद्ध नगर के राजा गन्धारपिंगल ने किसी विद्या के द्वारा अपनी पुत्री प्रभावती को वरण करने वाले वसुदेव का परिचय प्राप्त कर, प्रभावती की धात्रीमाता भगीरथी को भेजा। भगीरथी तत्काल वध-स्थल पर आई और विद्याबल से वसुदेव को मुक्त करवा कर ले गई। प्रभावती के साथ वसुदेवजी के लग्न हो गए। वहाँ अन्य कन्याओं के अतिरिक्त कुमारी सुकोशला के साथ भी वसुदेवजी के लग्न हुए। वे सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करते लगे।
हंस-कनकवती सम्वाद
भरतक्षेत्र में पेढालपुर नामक नगर था--विद्याधरों के भव्य नगर जैसा । भव्य भवनों, प्रासादों, अट्टालिकाओं, गृहोद्यानों, वाटिकाओं और ऋद्धि-सम्पत्ति से सुशोभित एवं दर्शनीय था । वहाँ सभी ऋतुएँ अनुकूल रह कर जन-जीवन को सुखमय बनाती थी। न्यायनीति तथा धर्म में तत्पर महाराजा हरिश्चन्द्र वहाँ के शासक थे। उनके उत्तम चरित्र एवं निष्पक्ष न्याय की यशोपताका संसार में फहरा रही थी। लज्जा, शील एवं उत्तम गुणों से युक्त महारानी लक्ष्मीवती, राजा की प्राणवल्लभा थी । महारानी से एक पुत्री का जन्म हुआ।
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