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तीर्थकर चरित्र
कह कर और वसुदेवजी का हाथ पकड़ कर उद्यान में ले गई और उनसे कहने लगी;
"इस भरतक्षेत्र में श्रीचन्दन नगर का 'अमोधरेता' राजा था। उसकी चारुमती: रानी का आत्मज चारुचन्द्र कुमार था। उस नगर में अनंगसेना वेश्या की पुत्री कामपताका बड़ी सुन्दर एवं आकर्षक थी। एक बार राजा ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें बहुत-से सन्यासी और तापस आदि आये। उनमें · कौशिक' और 'तृणबिंदु' नाम के दो उपाध्याय भी थे। उन दोनों ने राजा को कुछ फल दिये । राजा ने उनसे पूछा--"अद्भुत फल कहाँ से लाये ?" उन्होंने हरिवंश की उत्पत्ति से सम्बन्धित कल्पवृक्षों का वृत्तांत सुनाया । उस समय राजसभा में कामपताका वेश्या नृत्य करती थी। उसके सौंदर्य और नृत्य-कला से कौशिक उपाध्याय और राजकुमार चारुचन्द्र मोहित हो गए । यज्ञ पूर्ण होने के बाद राजकुमार ने कामपताका को अपने भवन में बुलवा लिया। उधर कौशिक उपाध्याय ने राजा के सामने कामपताका की मांग उपस्थित की। राजा ने कहा--"कामपताका श्राविका हो गई है और वह कुमार को वरण कर चुकी है । अब वह तुझे स्वीकार नहीं करेगी।" इस पर क्रुद्ध हो कर कौशिक ने शाप दिया कि-"यदि कुमार उस कामपताका के साथ सम्भोग करेगा, तो अवश्य ही मर जायगा।" राजा को मोह के प्रभाव का विचार आते वैराग्य हो गया। उसने चारुचन्द्र का राज्याभिषेक कर के सन्यास ग्रहण कर लिया और वन में चला गया। उसकी रानी चारुमती भी उसके साथ ही वन में चली गई। उस समय वह अज्ञातगर्भा थी। कुछ कालोपरान्त गर्भ प्रकट हुआ। उसने पति को अवगत कराया। उसके कन्या उत्पन्न हुई। उसका नाम ' ऋषिदत्ता' रखा। वय प्राप्त होने पर किसी चारणमुनि के उपदेश से वह श्राविका हुई। थोड़े ही दिनों में उसकी माता का देहान्त हो गया और वह पिता के साथ ही आश्रम में रहने लगी।"
प्रियंगुसुन्दरी का वृत्तांत
ऋषिदत्ता अपने पिता के साथ आश्रम में रहती हुई युवावस्था को प्राप्त हुई। उसके समस्त अंग विकसित एवं सौन्दर्य सम्पन्न हा गए । एक बार राजा शिलायुद्ध, मृगया के लिए वन में भटकता हुआ आश्रम में चला आया। अमोघरेता उस समय आश्रम में नहीं था। ऋषिदत्ता अकेली थी। शिलायुध और ऋषिदत्ता का मिलन, वेद-मोहनीय का पोषक बना । उस समय वह ऋतु-स्नाता थी। उसने राजा से कहा--" में ऋतु-स्नाता हूँ। यदि हमारा मिलन गर्भाधान का कारण बना, तो क्या होगा ?" राजा ने कहा-" में
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