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________________ ३०८ तीर्थंङ्कर चरित्र और भाग कर जहाँ स्थान मिला छुप गए। हम भी उन प्रत्याशियों में थे। हमे इस पलायन से बहुत लज्जा आई और हम तपस्वी बन कर इस आश्रम में आए हैं। हमें अपना जीवन अप्रिय लग रहा है ।" वसुदेवजी ने उन्हें जिनधर्म का उपदेश दिया । उपदेश से प्रभावित हो कर उन्होंने जैनदीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वसुदेवजी श्रावस्ति नगरी गए । श्रावस्ति के बाहर उद्यान में उन्होंने एक देवालय देखा, जिसके तीन द्वार थे। मुख्य द्वार बत्तीस अर्गलाओं से बन्द था । उसके दूसरी ओर के द्वार से भीतर गए । उन्होंने देखा कि उस मन्दिर में तीन मूर्तियाँ है-- १ मुनि की २ गृहस्थ की और ३ तीन पांव वाले भैंसे की । उन्होंने एक ब्राह्मण से इन मूर्तियों का रहस्य पूछा। वह बोला- "" 'यहाँ जितशत्रु राजा था। उसके मृगध्वज कुमार था। उसी नगर में कामदेव नामक एक सेठ था । एकबार कामदेव सेठ अपनी पशुशाला में गया। सेठ से ग्वाले ने कहा- 'सेठ ! आपको भैंस के पाँच पाड़े तो मार डाले गए. किंतु इस छठे पाड़े को देख कर दया आती है । यह बड़ा सीधा, भयभीत और कम्पित है तथा बार-बार मेरे पांवों में सिर झुकाता है । इसलिए मैंने इसे नहीं मारा | आप भी इसे अभयदान दीजिए । यह पाड़ा कदाचित् जातिस्मरण वाला हो । " ग्वाले की बात सुन कर सेठ, उस पाड़े को ले कर राजा के पास आए और उसके लिए अभय की याचना की । राजा ने अभय स्वीकार करते हुए कहा - " यह पाड़ा इस नगर में निर्भय हो कर सर्वत्र घूमता रहेगा ।" अब पाड़ा उस नगर में निस्संक घूमने लगा और यथेच्छ खाने लगा । कालान्तर में राजकुमार मृगध्वज ने उस पाड़े का एक पाँव छेद दिया । अपने पुत्र के द्वारा ही अपनी आज्ञा की अवहेलना देख कर राजा क्रोधित हो गया और कुमार को नगर छोड़ कर निकल जाने का आदेश दिया। कुमार ने नगर का ही त्याग नहीं किया, वह संसार को ही छोड़ कर निकल गया और श्रमण- प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । पाँव टूटने के बाद अठाहरवें दिन पाड़ा मर गया और प्रव्रज्या के बाइसवें दिन मृगध्वज महात्मा को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवेन्द्र, नरेन्द्रादि ने केवल - महोत्सव किया । धर्मदेशना के पश्चात् जितशत्रु नरेश ने पूछा - " भगवन् ! उस पाड़े के साथ आपका पूर्वभव का कोई वैर था ?” राजन् ! पूर्वकाल में अश्वग्रीव नाम का एक अर्द्धचक्री नरेश था । उसके हरिश्मश्रु नाम का मंत्री था। वह नास्तिक था और धर्म की निन्दा करता रहता था। किंतु राजा आस्तिक था और धर्म का गुणगान करता रहता था। राजा और मन्त्री के बीच धार्मिक-विवाद होता ही रहता था । राजा और मंत्री को त्रिपृष्ट वासुदेव और अचल बलदेव ने मारा । वे दोनों मर कर सातवीं नरक में गए। नरक से निकल कर भव-भ्रमण __" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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