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प्रियंगुसुन्दरी का वृत्तांत और मूर्तियों का रहस्य
"देवेन्द्र ! न तो हम इन महात्मा को जानते हैं और न इनसे किसी प्रकार का द्वेष है । हम अपने स्वामी महाराजा विद्युदृष्ट्रजी की आज्ञा से यह अधम कृत्य करने लगे थे । आप हके क्षमा करें ।"
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- "अज्ञानियों ! में इन वीतरागी महात्मा के केवलज्ञान का महोत्सव करने आया हूँ । इसलिए मैं तुम जैसे पापियों की उपेक्षा करता हूँ । अब तुम जाओ । पुनः साधना करने पर तुम्हें विद्या सिद्ध हो जाएंगी । किन्तु यह स्मरण रहे कि यदि तुमने अरिहंत और साधुओं को सताया, तो वे विद्याएँ तत्काल निष्फल हो जाएँगी और रोहिणी आदि महाविद्याएँ तो अब तुम्हारे इस राजा को प्राप्त होगी भी नहीं । इतना ही नहीं, इसके किसी वंशज पुरुष या स्त्री को भी ये महाविद्याएँ तभी सिद्ध होगी, जब किसी महात्मा या पुण्यात्मा के दर्शन हों।" इस प्रकार कह कर और केवल - महोत्सव कर के धरणेन्द्र चले गए ।
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राजा विद्युदृष्ट्र के वंश में केतुमति नाम की एक कन्या हुई है ! वह रोहिणी विद्या की साधना करने लगी । उसके लग्न पुण्डरीक वासुदेव के साथ हुए। उसके बाद ही उसको विद्या सिद्ध हुई । मैं उसी वंश की पुत्री हूँ। मेरा नाम 'बालचन्द्रा' है । आपके प्रभाव से मेरी साधना सफल हुई । आप जैसे भाग्यशाली पुरुष श्रेष्ठ के चरणों में मैं अपने आपको समर्पित करती हूँ । अपके पुण्य प्रभाव से मेरी विद्या सिद्ध हुई है । यह विद्या भी आपके उपयोग में आएगी । वसुदेव ने उसे वेगवती को भी विद्या सिखाने का आदेश दिया । उसके बाद वेगवती को साथ लेकर बालचन्द्रा गगनवल्लभ नगर में गई और वसुदेव, तपस्वी के आश्रम में पहुँचे । दो राजा, तापसी - दीक्षा ले कर तत्काल ही उस आश्रम में आए | वे अपने कुकृत्य से खेदित हो रहे थे । वसुदेव ने उनके खेद का कारण पूछा । वे बोले
प्रियंगुसुन्दरी का वृत्तांत और मूर्तियों का रहस्य
"श्रावस्ति नगरी में एणीपुत्र नाम के प्रतापी नरेश हैं । उनका जीवन एवं चरित्र निर्दोष है । उनके ‘प्रियंगुसुन्दरी' नामकी एक पुत्री है। उसके स्वयंवर के लिए बहुत से राजा एकत्रित हुए । किन्तु प्रियंगुसुन्दरी को कोई भी नहीं भाया । सभी राजा हताश हुए । उन्होंने सम्मिलित रूप से हमला किया, किन्तु एणीपुत्र नरेश के आगे वे ठहर नहीं
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