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वसुदेवजी का हरण और नीलयशा से लग्न
सेवा से प्रसन्न हो कर धरणेन्द्र ने दोनों को वैताढ्य की दो श्रेणियों का राज्य दिया । दोनों ने राज्य-सुख भोगने के बाद अपने पुत्रों को राज्य दे कर प्रव्रज्या अंगीकार कर ली और मुक्ति प्राप्त की । नमि राजा के पुत्र का नाम मातंग था । वह भी दीक्षा ले कर स्वर्ग पहुँचा । उसकी वंश परम्परा में अभी प्रहसित नाम का विद्याधर राजा है । में उसकी हिरण्यवती नाम की रानी हूँ। मेरा पुत्र सिंहदृष्ट्र है और उसकी पुत्री का नाम नीलयशा है । उस नीलयशा को ही आपने आज उद्यान में देखा है । नीलयशा ने आपको जब से देखा है, तभी से वह आप पर मुग्ध है । इसलिए आप उसे अपनी पत्नी बना कर उसकी इच्छा पूरी करें। इस समय मुहूर्त भी अच्छा है । वह विलम्ब सहन नहीं कर सकती । आप शीघ्रता करें और विरह से उत्पन्न खेद को मिटावें ।”
वसुदेव ने कहा - " मैं तुम्हारी बात पर विचार करूंगा। तुम बाद में आना ।" --' अब में आपके पास आऊँगी, या आप उसके पास पहुँचेगे, यह तो भविष्य ही बताएगा" -- कह कर मातंगिनी चली गई ।
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ग्रीष्मऋतु का समय था । वसुदेव, गन्धर्वसेना के साथ सोये हुए थे कि एक प्रेत ने वसुदेव का हरण कर लिया और उन्हें एक वन में ले गया। वहाँ उन्होंने देखा -- एक ओर चिता रची हुई है और दूसरी ओर भयानक रूप वाली वह हिरण्यवती विद्याधरी खड़ी है। हिरण्यवती ने उस प्रेत से आदरपूर्वक कहा-- चन्द्रवदन ! अच्छा किया तुमने । " चन्द्रवदन, वसुदेव कुमार को हिरण्यवती को सौंप कर अन्तर्धान हो गया । हिरण्यवती ने हँस कर वसुदेव का स्वागत किया और पूछा -- ' कुमार ! कहो क्या विचार है -- तुम्हारा ? मेरा कहना मानो और नीलयशा को ग्रहण करो ।” उसी समय अनेक सुन्दरियों के साथ नीलया वहां आई। वह लक्ष्मी के समान सुसज्जित थी । हिरण्यवती ने कहा - " पौत्री ! यह तेरा पति है । तू इसे ले चल ।" नीलयशा उसी समय वसुदेव को ले कर अपनी दादी • और अन्य साथियों के साथ आकाश मार्ग से चली । प्रातःकाळ होने पर हिरण्यवती खेचरी ने वसुदेव से कहा--" यह मेघप्रभः वन से व्याप्त हीमान पर्वत है । चारण मुनि यहाँ पधारते और ध्यान करते रहते हैं । यहाँ ज्वलनप्रभः विद्याधर का पुत्र अंगारक, विद्या भ्रष्ट हो कर पुनः साधना में रत है । वह पुनः विद्याधरों का अधिपति होना चाहता है । अब उसे विद्या सिद्ध होगो भी विलम्ब से ही । यदि आप उसे दर्शन देदें, तो आपके प्रभाव से उसको शीघ्र ही विद्या सिद्ध हो जायगी ।" वसुदेव ने इन्कार करते हुए कहा-1" में अंगारक को देखना भी नहीं चाहता।" हिरण्यवती उसे वैताढ्य पर्वत पर रहे हुए शिवमन्दिर नगर में ले गई। वहाँ सिंहदृष्ट्र राजा ने वसुदेव के साथ नीलयशा का लग्न कर दिया ।
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