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________________ चारुदत्त की कथा २९३ हुआ पीपल-फल, बच्चे के मुंह में गिर पड़ा था और वह मुंह चला कर उसे खाने का उपक्रम कर रहा था। बच्चे को इस दशा में देख कर सुभद्रा ने उठा लिया और पीपल के. वृक्ष के नीचे, पीपल-फल खाते हुए मिलने के कारण बच्चे का नाम 'पिप्पलाद' रखा। सुभद्रा के द्वारा यत्नपूर्वक पोषण पाया हुआ पिप्पलाद बड़ा हुआ और विद्याभ्यास से वेद विद्या का महापण्डित हो कर समर्थ वादी बन गया। उसने बहुत-से वादियों को वाद में जीत कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। उसकी कीर्ति चारों ओर व्याप्त हो गई। जब याज्ञवल्क्य ने उसकी ख्याति सुनी, तो वह भी सुलसा को साथ ले कर वाद करने आया और वाद में दोनों पति-पत्नि पराजित हो गए। पिप्पलाद को ज्ञात हुआ कि ये दोनों मेरे मातापिता हैं और मुझे जन्म के बाद ही वन में छोड़ कर चले गए थे, तो उसे उन पर क्रोध आया। उसने माता-पिता से वैर लेने के लिए 'मातृमेध' और 'पितृमेध' यज्ञ की स्थापना की और दोनों को मार कर होम दिया। मैं उस समय पिप्पलाद का 'वाक्बलि' नाम का शिष्य था। मने पशुबलि में अनेक पशुओं का वध किया और फलस्वरूप घोर नरक में गया । नरक में से निकल कर मैं पाँच बार भेड़-बकरा हुआ और पांचों बार ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ में मारा गया। इसके बाद मैं टंकण देश में मेंढ़ा हुआ। वहाँ मुझे इनके साथी रुद्रदत्त ने मारा, किंतु इन चारुदत्तजी की कृपा से मुझे धर्म की प्राप्ति हुई और मैं देवगति को प्राप्त हुआ। चारुदत्तजी ही मेरे धर्मगुरु हैं । इन्हीं की कृपा से मैंने धर्म पा कर देवभव पाया। इस महोपकार के कारण मेरे लिए ये सर्व-प्रथम वन्दनीय हैं । मैंने इन्हें उस उपकार के कारण ही--मुनिराज से भी पहले--वन्दन किया है।" देव का पूर्वभव सुन कर दोनों विद्याधरों ने कहा--"चारुदत्त महाशय तो हमारे लिए भी वन्दनीय हैं । इन्होंने हमारे पिताश्री को भी जीवन-दान दिया है।" । देव ने चारुदत्त से कहा--"महानुभाव ! कहिये मैं आपका कौनसा हित करूं ?" चारुदत्त ने कहा--"अभी तो कुछ नहीं, परन्तु जब मैं तुम्हें स्मरण करूँ, तब तुम आ कर मुझे योग्य सहायता देना ।" चारुदत्त की बात स्वीकार कर, देव यथास्थान चला गया । इसके बाद वे दोनों विद्याधर भ्राता मुझं (चारुदत्त को) ले कर शिवमन्दिर नगर आये । वहाँ विद्याधरों की माता सुकुमालिका ने मेरा बहुत आदरपूर्वक स्वागत किया और अपने स्वजन-परिजनों के समक्ष मेरे द्वारा बचाये हुए विधाधरपति महाराज अमितगति का वर्णन सुनाया । सभी लोग मेरा बहुत आदर और सम्मान करने लगे। मैं बहुत दिनों तक वहाँ आनन्दपूर्वक रहा , एक दिन उन्होंने अपनी बहिन राजकुमारी गन्धर्वसेना का परिचय देते हुए कहा;-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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