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________________ २९२ तीर्थकर चरित्र भागा और पर्वत पर चला गया। मेरी पत्नी उस दुष्ट से बचने के लिए पर्वत पर से गिर कर प्राण देने को तत्पर थी। मुझे देख कर वह प्रसन्न हुई। मैं उसे ले कर राजधानी में आया। मेरे पिता ने मुझे राज्य दे कर, हिरण्यगर्भ और सुवर्णगर्भ नाम के चारण मुनि के पास दीक्षा ली । मेरी मनोरमा पत्नी से मुझे सिंहयश और वराहग्रीव नाम के दो पुत्र हुए। ये भी पराक्रमी एवं वीर हैं । विजयसेना नाम की दूसरी रानी से मेरे एक पुत्री हुई, जिसका नाम गन्धर्वसेना है और वह उत्तम रूप-लावण्ण सम्पन्न तथा गायन-विद्या में निपुण है । मैने बड़े पुत्र को राज्य और छोटे को युवराज पद दिया और अपने पिता गुरु के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। यह लवणसमुद्र के मध्य कंभकंटक दीप का कर्केटक पर्वत है। मैं यहाँ तपस्या कर रहा हूँ। अब तुम बताओ, यहाँ कैसे आये ?" __ चारुदत्त ने अपना वृतान्त सुनाया। इतने में दो विद्याधर वहां आ पहुँचे, जो मुनिराज जैसे ही रूप-सम्पन्न थे। उन्होंने महात्मा को प्रणाम किया। मैने आकृति देख कर समझ लिया कि ये दोनों इन महात्मा के पुत्र हैं । महात्मा ने उन्हें मेरा परिचय कराया। उन दोनों ने मुझे प्रणाम किया। हम बातें करते थे कि इतने में एक विमान उतरा । उसमें से एक देव ने उतर कर पहले मुझे प्रणाम किया और फिर मुनि को वन्दना की विद्याधर बन्धुओं को यह देख कर आश्चर्य हुआ। उन्होंने देव से वन्दना के उलटे क्रम का कारण पूछा । देव ने कहा ;--"यह चारुदत्त मेरा धर्माचार्य है। इसने मेंढ़े के भव में मुझे धर्म प्रदान किया था। इसीसे मैं देव-ऋद्धि पाया और इस उपकार के कारण मैने इन्हें प्रथम प्रणाम किया।" मेंढ़े के जीव--देव ने चारुदत्त को प्रथम वन्दन करने के कारण के साथ, अपना पूर्व-भव बतलाते हुए कहा;--"काशीपुर में दो सन्यासी रहते थे। उनके सुभद्रा और सुलसा नाम की दो बहिनें थीं। वे दोनों विदुषी वेद और वेदांग में पारंगत थीं। उन्होंने वाद में बहत-से वादियों को पराजित किया था। एकबार याज्ञवल्क्य नाम का सन्यासी उनके साथ वाद करने आया उनमें आपस में प्रतिज्ञा हुई कि "जो वाद में पराजित हो जाय, वह विजेता का दास बन कर रहेगा ।" वाद प्रारम्भ हुआ, उसमें याज्ञवल्क्य की विजय हुई और सुलसा पराजित हो कर दासी बन गई । तरुणी सुलसा पर, नवीन तरुण्य प्राप्त याज्ञवल्क्य मोहित हो कर काम-क्रीड़ा करने लगा। कालान्तर में याज्ञवल्क्य के संयोग से सुलसा के पुत्र जन्मा। लोक-निन्दा के भय से वे पुत्र को पीपल के पेड़ के नीचे सुला कर अन्यत्र चले गये । सुभद्रा ने सुलसा के पुत्रजन्म और उस पुत्र का त्याग कर पलायन करने की बात सुनी, तो वह उस पीपल के पेड़ के पास आई । उस समय एक पका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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