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________________ चारुदत्त की कथा २६१ - वहाँ से में अपने मामा के मित्र के साथ सुवर्णभूमि जाने के लिए थोड़ा द्रव्य उधार ले कर चल दिया। मार्ग में इषुवेगवती नामक नदी थी। उस नदी को उतर कर हम गिरीकूट पहुँचे । वहाँ से आगे हमने बरु के वन में प्रवेश किया और आगे बढ़ कर टंकण देश में गा कर दो मेंढ़े (भेड़ जाति के पशु) लिये । उन मेंढ़ों पर सवार हो कर हम ‘अजमार्ग' (बकरा चले वैसा रास्ता) पर चले । अजमार्ग पार कर के आगे बढ़ने पर हमने देखा कि अब पाँवों से चलने जैसा मार्ग भी नहीं है । रुद्रदत्त ने कहा-“अब इन मेढ़ों की हमें कोई आवश्यकता नहीं, इसलिए इनको मार कर इनका अन्तरभाग उलट दें और खाल अपने शरीर पर लपेट कर बाँध लें। जब भारण्ड पक्षी यहाँ आवेंगे, ती मांस के लोभ से हमें उठालेंगे और ले जा कर स्वणभूमि पर रख देंगे । इस प्रकार हम सरलता से पहुँच जावेंगे।" रुद्रदत्त की बात सुन कर मैने कहा--" नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। जिन प्राणियों की सहायता से हम विषम-मार्ग पार कर यहाँ तक पहुँचे, उन उपकारी प्राणियों को मार डालना महापाप है।" रुद्रदत्त ने मेरी बात नहीं मानी और बोला"ये दोनों भेड़ तेरे नहीं, मेरे हैं । तू मुझे नहीं रोक सकता ।" इतना कह कर तत्काल उसने एक मेंढ़े को मार डाला। यह देख कर दूसरा मेंढा भयपूर्ण दृष्टि से मेरो ओर देखने लगा। मैंने उससे कहा--" मैं तेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हूँ। मैं तुझे नहीं बचा सकता। तू जिनधर्म का शरण ले और शान्त मन से धर्म का चिन्तन कर । इससे तू मर कर भी सुखी हो जायगा।" मेंढ़ा मेरी बात समझ गया और धैर्यपूर्वक खड़ा रहा । मैं उसे नमस्कार महामन्त्र सुनाने लगा । क्रूर-प्रकृति रुद्रदत्त ने उस मेंढ़े को भी मारडाला । वह मेंढा शुभ भावों में मर कर देव हुआ। फिर मेढ़ों की खाल उलट कर हमने ओढ़ ली और बैठ गए। तत्पश्चात् वहाँ दो भारण्ड पक्षी आये और मांस-पिण्ड समझ कर उन्होंने--एक-एक ने-हम एक-एक को उठाया और उड़ गये । आगे चलते हुए वे दोनों आकाश में ही लड़ने लगे। इस झगड़े में मैं उस पक्षी की पकड़ से छूट गया और एक सरोवर में गिरा । मैंने तत्काल छूरी से उस चमड़े को काट कर पृथक् किया और तैर कर सरोवर के किनारे आया । इसके बाद मैं वहाँ से चल कर एक पर्वत पर गया । पर्वत पर ध्यानस्थ रहे हुए मुनि को देख कर मैने उनकी वन्दना की। उन्होंने मुझे देख कर कहा;... “चारुदत्त ! इस दुर्गम स्थान पर कैसे आए ? यहाँ पक्षी, विद्याधर और देव के सिवाय कोई पादचारी तो आ ही नहीं सकता । मुझे पहिचाना? मैं वही अमितगति हूँ, जिसे तुमने कीलें निकाल कर बचाया था। मैं बहाँ से उड़ कर अपने शत्रु के पीछे पड़ा और अष्टापद पर्वत के निकट आया । मुझे देख कर वह दुष्ट मेरी पत्नी को छोड़ कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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