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________________ २६० तीर्थकर चरित्र तू मुझे दे । मैं रस से भर कर तुझे देदूंगा। फिर तुम ऊपर जाओ, तो तूम्बी उसे मत देना और अपने को बाहर निकालने का आग्रह करना । यदि रस-तूम्बी पहले दे दी, तो वह तुम्हें कुएँ में डाल देगा और मेरे जैसी ही दशा तुम्हारी होगी। वह बड़ा पापी और धूर्त है।" मैने उसे तूम्बी दे दी। उसने रस भर कर तूम्बी मेरी मञ्चिका के नीचे बाँध दी। इसके बाद मैने रस्सी हिलाई, जिससे त्रिदण्डी ने मञ्चिका खिची । मैं कुएँ के मुंह के निकट आया । त्रिदण्डी ने मुझ-से रस-तूम्बी माँगी । मैने उससे कहा-"पहले मुझे बाहर निकालो।' किन्तु उसने पहले तूम्बी देने का आग्रह किया। मैने तूम्बी नहीं दी । जब वह बहुत ही हठ करने लगा, तो मैने तूम्बी का रस उसी कुएँ में डाल दिया । त्रिदण्डो ने क्रुद्ध हो कर मुझे मञ्चिका सहित कुएँ में डाल दिया। भाग्य-योग में उसी वेदिका पर पड़ा । मुझे गिरा हुआ देख कर उस अकारण-मित्र ने कहा--"भाई ! चिन्ता मत करो। यह अच्छा ही हुआ कि तुम रस में नहीं गिर वेदिका पर पड़े । यदि भाग्य ने साथ दिया, तो तुम इस कूप से बाहर निकल सकोगे। यहां एक गोह (गोधा-एक भुजपरिसर्प प्राणी) आती है, यदि तुमने उसकी पूछ पकड़ ली, तो ऊपर पहुँच कर सुखी हो सकोगे ।" मैं उसके वचन सुन कर आश्वस्त हुआ और नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करता हुआ काल व्यतीत करने लगा। मेरा वह अनजान हितैषी, मृत्यु को प्राप्त हुआ। कुछ काल बाद मुझे एक भयानक आहट सुनाई दी। मैने चौंक कर देखा, तो एक गोह आ रही थी। मुझे उस मनुष्य की बात याद आई । जब गोधा रस पी कर लौटने लगी, तो मैने दोनों हाथों से उसकी पूंछ पकड़ ली। जिस प्रकार गाय की पूंछ पकड़ कर ग्वाला, नदी को पार कर लेता है, उसी प्रकार में भी गोधा की पूंछ पकड़ कर कुएँ से बाहर निकल आया और बाहर आते ही पूंछ छोड़ दी। थोड़ी देर तो मैं अचेत हो कर भूमि पर पड़ा रहा । फिर सचेत हो कर मैं इधर-उधर फिरने लगा। इतने में एक मस्त जंगली भैसा भागता हुआ उधर आया। मैं उसे देख कर भय के मारे एक शिला-खण्ड पर चढ़ गया। भैंसा क्रोधपूर्वक उस शिलाखण्ड पर अपने सींग से प्रहार करने लगा। इतने में उस शिला-खण्ड के पास से एक बड़ा भुजंग निकला और भैंसे पर झपटा । वह भैंसे पर लिपट गया और अपने विशाल फण से प्रहार करने लगा। भैसा भी भानभूल हो कर सर्प से छुटकारा पाने की भरसक चेष्टा करने लगा। मैं इस अवसर का लाभ ले कर वहां से भागा। भागते-भागते में अटवी को पार कर एक गांव के निकट पहुँचा । उस गाँव में मेरे 'मामा का मित्र रुद्रदत्त रहता था। रुद्रदत्त ने मुझे अपनाया। मैं उसके घर रह कर अपनी दशा सुधारने लगा। कुछ ही दिनों में मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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