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पति के दुःख से दुखी से दुखी महारानी का महाक्लैश
राजा उग्रसेनजी के अतिमुक्त आदि पुत्र थे । पिता के बन्दी बना लेने की घटना का अतिमुक्त कुमार के हृदय पर गंभीर प्रभाव पड़ा। उन्होंने संसार से उदासीन हो कर निर्ग्रथ-प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । राज्याधिकार पा कर कंस संतुष्ट हो गया । उसने अपने पालक सुभद्र सेठ को सौर्य नगर से बुलाया और बहुतसा धन दे कर सम्मानित किया । महारानी धारिणी देवी अपने पति के बन्दी बनाये जाने से अत्यंत दुःखी थी । उन्होंने कंस को समझाया-
" पुत्र ! तुझे यमुना में बहाने वाली में हूँ, तेरे पिता नहीं । तेरे पिताजी को तो मालूम ही नहीं कि पुत्र जीवित जन्मा । मैने उन्हें कहला दिया था कि — मृत बालक जन्मा है और तुझे पेटी में बन्द करवा कर दासी द्वारा यमुना में बहा दिया । तेरे साथ मैंने जो पत्र रखा था, उसमें भी यही बात लिखी थी । यदि तेरा अपराध किया है, तो मैंने । तेरे पिताजी तो सर्वथा निर्दोष हैं । तू मुझे दण्ड दे । मुझे मार डाल, पर उन निर्दोष को मुक्त कर दे ।"
कंस ने माता की बात नहीं मानी। रानी हताश होकर उन लोगों के घर गई-जिन्हें कंस मानता था और विश्वास करता था । उन्हें वह करुणापूर्ण स्वर में पति को मुक्त करवाने के लिए कहती, अनुनय करती और वे कंस को समझाते, पर वह किसी की नहीं मानता । पूर्वभव का वैर यहाँ बाधक बन रहा था ।
वसुदेव द्वारा मृत्यु का ढोंग और विदेश गमन
वसुदेवजी अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक थे । वे नगर में फिरते, तो उन्हें देख कर स्त्रियाँ मुग्ध हो जाती और विवेक-शून्य हो कर उन्हें घुरती रहती । कई घर से निकल कर उनके पीछे फिरने लगती । वसुदेवजी निदान के प्रभाव से रमणीवल्लभ थे । उनका निदान सफल हो रहा था। वे अपना समय इधर-उधर घूमने और क्रीड़ा करने में व्यतीत करने लगे । नगर के प्रतिष्ठितजनों ने, वसुदेवजी के आकर्षण से स्त्रियों में व्याप्त कामुकता, मर्यादाहीनता एवं अनैतिकता से चिन्तित हो कर राजा समुद्रविजयजी से निवेदन किया । राजा ने नागरिक शिष्टमण्डल को आश्वासन दे कर बिदा किया और अवसर पाकर वसुदेवजी से कहा - " बन्धु ! तुम दिनभर भ्रमण करते रहते हो। इससे तुम्हारे शरीर पर विपरीत परिणाम होता है । तुम मुझे दुर्बल दिखाई दे रहे हो । इसलिए तुम भ्रमण
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