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तीर्थङ्कर चरित्र
करना बन्द कर के कुछ दिन विश्राम करो और यहीं रह कर अपनी कलाओं की पुनरावृत्ति करो तथा नवीन कलाओं का अभ्यास करो। इससे मनोरञ्जन भी होगा और कला में विकास भी होगा।" वसुदेव ने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा मानी और भवन में ही रह कर गीतनृत्यादि में काल व्यतीत करने लगे। कालान्तर में कुब्जा नाम की दासी, गन्ध-पात्र ले कर उधर से निकली। वसुदेवजी ने दासी से पूछा--"क्या लिये जा रही है ?” “यह गन्धपात्र है। महारानी शिवादेवी ने महाराज के लिए भेजा है । मैं उन्हें देने के लिए जा रही हूँ।" वसुदेवजी ने हँसते हुए दासी के हाथ से गन्धपात्र ले लिया और कहा--"इसकी तो मुझे भी आवश्यकता है ।" दासी ने कुपित होते हुए कहा--"आपके ऐसे चरित्र के कारण ही आप भवन में बन्दी जीवन व्यतीत कर रहे हैं।" दासी की बात वसुदेवजी को लग गई। उन्होंने पूछा--"क्या कहती है ? स्पष्ट बता कि मैं बन्दी कैसे हूँ ?" दासी सकुचाई और अपनी बात को छुपाने का प्रयत्न करने लगी। किंतु कुमार के रोष से उसे बताना ही पड़ा। उसने नागरिकजनों द्वारा महाराज से की गई विनती और फल स्वरूप वसुदेव का भवन में ही रहने की सूचना का रहस्य बता दिया । वसुदेवजी ने सोचा--- 'यदि महाराज यह मानते हों कि मैं स्त्रियों को आकर्षित करने के लिए ही नगर में फिरता हूँ और इससे उनके सामने कठिनाई उत्पन्न होती है, तथा इसी के लिए उन्होंने मुझे भवन में ही रहने की आज्ञा दी है, तो मुझे यहाँ रहना ही नहीं चाहिये।' इस प्रकार विचार कर उन्होंने गुटिका के प्रयोग से अपना रूप पलटा और वेश बदल कर चल निकले । नगर के बाहर वे श्मशान में आये। वहाँ एक अनाथ मनुष्य का शव पड़ा था और एक ओर चिता रची हुई थी, वसुदेवजी ने उस शव को चिता में रख कर आग लगा दी और एक पत्र लिख कर एक खम्भे पर लगा दिया, जिसमें लिखा था;
"लोगों ने मुझे दूषित माना और मेरे आप्तजन के समक्ष मुझे कलंकित किया : इसलिए मेरे लिए जीवन दुभर हो गया। अब मैं अपने जीवन का अन्त करने के लिए चिता में प्रवेश कर रहा हूँ। मेरे आप्तजन और नागरिकजन मुझे क्षमा करें और मुझे भुला दें।"
पत्र खंभे पर लगा कर, वसुदेवजी ब्राह्मण का वेश बना चल दिये। कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने एक रथ जाता हुआ देखा । उसमें दो स्त्रियाँ बैठी थी--एक माता और दूसरी पुत्री । पुत्री सुसराल से अपनी माता के साथ पीहर जा रही थी । वसुदेव को देख कर पुत्री ने माता से कहा-' इस थके हुए पथिक को रथ में बिठा लो।' वसुदेव को रथ में बिठाया और घर आ कर भोजनादि कराया। संध्या-काल में वसुदेव वहाँ से चले और
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