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कंस का जीवयशा से लग्न
"पुत्र ! मुझे कोष्टुकी नामक ज्ञानी ने कहा था कि--जरासंध की पुत्री जीवयशा अच्छे लक्षण वाली नहीं है । वह पितृकुल के लिए अनिष्टकारी होगी। इसलिए सावधान रहना है । सिंहरथ को पकड़ कर लाने के उपलक्ष में जरासंध जीवयशा का लग्न तुम्हारे साथ करेगा । अपने को इससे बचना है । कहो, कैसे बचोगे ?"
बसुदेव ने कहा--" पिताश्री ! चिन्ता की बात नहीं । सिंहरथ को कंस ने पकड़ा है । इसलिए जीवयशा उसी को मिलनी चाहिए।"
---"पुत्र ! कंस, क्षत्रिय जैसे पराक्रम वाला हो कर भी वणिकपुत्र है । जरासंध उसे अपनी पुत्री नहीं देगा, फिर क्या होगा ? __ राजा ने सुभद्र सेठ को बुला कर कंस की उत्पत्ति का हाल पूछा । सुभद्र ने कहा--
“महाराज ! कंस मेरा पुत्र नहीं, यह मथुराधिपति राजा उग्रसेनजी का पुत्र है।" उसने कंस के मिलने की सारी घटना कह सुनाई और उस पेटी में से मिली हुई दोनों मुद्रिकाएँ तथा वह पत्र दिखाया।" पत्र में लिखा था कि
“यह बालक महाराज उग्रसेनजी का पुत्र और महारानी धारिणी का अंगजात है । भयंकर दोहद उत्पन्न होने के कारण अनिष्टकारी जान कर महारानी ने अपने पति की रक्षा के हित इस बालक का त्याग किया है।"
पत्र पढ़ कर समुद्रविजयजी ने कहा--" महाभुज कंस, यादव-कुल के महाराज उग्रसेनजी का पुत्र है । इसी से इतना बल और शौर्य है।" उन्होंने यह सारी बात कंस को बताई और पत्र तथा मुद्रिका भी दिखाई । कंस अपने को राजकुमार जानकर प्रसन्न हुआ, किन्तु अपने को मत्यु के मुख में धकेलने और इस हीन दशा में डालने के कारण पिता पर रोष जाग्रत हुआ । पूर्वभव का वैर सफल होने का समय भी परिपक्व हो रहा था।
समुद्रविजयजी, कंस को साथ लेकर बन्दी सिंहरथ सहित जरासंध के पास पहुँचे। वन्दी को भेंट करने के बाद कंस के पराक्रम का बखान किया। जरासंध ने कंस के साथ अपनी पुत्री का लग्न कर दिया। कंस ने पिता से वैर लेने के उद्देश्य से मथुरा नगरी का राज्य माँगा । जरासंध ने उसकी माँग स्वीकार कर ली और कस मथुरा पर अधिकार करने के लिये सेना के साथ रवाना हो गया । कल ने मथुना पहुँच कर राज्य पर अधिकार कर लिया और अपने पिता राजा उग्रसेनजी को बन्दी कर के पिंजरे में बन्द कर दिया ।
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